संसार में विदेश गमन में भारत का पहला स्थान होने को लेकर विभिन्न मत हो सकते हैं. लेकिन मैं तो यही कहूंगा कि अगर हमारे युवा उस विकल्प के अलावा दूसरी बात सुनने को तैयार नहीं, तो बहुत अच्छा है कि वो परदेस के लिए उड़ान भरें.
डॉ. प्रदीप राय
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मैं कई बार मजाक में कहता रहा हूं … “लगता है कि सारा भारत विदेश चला जाएगा और वो भी बहुत जल्दी. क्योंकि हर तीसरा व्यक्ति विदेशा जाने के कागज हाथ में लिए घूमता नजर आता है. ऐसे में मैं तो यहां भारत में अपने परिवार संग अकेला रहा जाउंगा क्योंकि मैंने तो विदेश जाने के बारे कुछ सोचा ही नहीं. जब सब चले जाएंगे, तो मुझे यहां अकेला रहना कितना मुश्किल होगा”
हालांकि मैंने मजाक में ऐसी बात कही, जैसी स्थिति कभी नहीं होगी. लेकिन मैंने इसे यूं ही बिना आधार भी नहीं कहा. उसकी एक ठोस वजहें हैं, जिसके आधार पर मैंने विनोद में ऐसी बात कही. पहली बात तो यह कि एक जमाने से बस में सफर करते हुए जब भी बगल में बैठे दो युवाओं को बात करते देखता हूं, चर्चा उनकी यही है कि तेरा विदेश जाने का काम कहां तक पहुंचा? भारत की बसों के नियमित सफर में भारत के युवाओं के मन में विदेश गमन की बलवती चाह को इतना पढ़ चुका हूं कि समय मिले तो पूरा उपन्यास इस पर लिख डालूं.
उधर यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए सारा दिन विभाग में विदेश..विदेश..विदेश की बात आठ घंटे में मेरे कानों में गूंजती है. मैं बरसों से देख रहा हूं कि यूनिवर्सिटी में हमारे विभाग में हर तीसरा विद्यार्थी एक दम विदेश जाने के लक्ष्य पर पूरी तरह फोकस हैं. मैं अपने विभाग में देखता कि हर रोज कितने ही विद्यार्थियों के विदेश में आवेदन के लिए विभाग से पुष्टि पत्र तैयार करने में क्लर्क से लेकर डायरेक्टर जुटे हुए हैं. कक्षा में पढ़ाते हुए सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि अधिकांश विद्यार्थी IELTS आदि की तैयारी के लिए कक्षा से छूट मांगते हैं. अधिकतर क्लास में एक बार तो कोई न कोई विद्यार्थी विदेश गमन की गाथा छेड़ ही देता है. विद्यार्थियों के मनोभावों पर यह कितनी गहरी अमिट सी छाप है कि उनको तो चर्चा ही इसकी करनी है. वो मेरे से सवाल भी इसी सन्दर्भ में करते हैं. इसके मद्देनजर मुझे खुद विदेश जाने संबंधी विभिन्न चीजों का ज्ञान इकट्ठा करना पड़ रहा है. उसके अलावा मेरे पास कोई रास्ता भी नहीं क्योंकि मेरे सामने बैठे श्रोता को सूचना की यह विशेष खुराक चाहिए ही चाहिए.
कई बार कक्षा में पूछता हूं कि कोई ऐसा भी है क्या जो सिर्फ भारत में ही रहना चाहता है. मुश्किल ही कोई हाथ खड़ा करता है. उनका जवाब बड़ा सटीक होता है.. कहते हैं कि गुरु जी, ऐसा नहीं कि चाहने भर से सभी चले ही जाएंगे, लेकिन कोशिश में कसर कोई छोड़ेंगे नहीं. कोई बड़ी ही मजबूरी हुई तो यहां रहेंगे.
मुझे इस बात में कोई बुराई नजर नहीं आती कि मेरे देश के ज्यादातर युवा विदेश जाएं. मेरी शुभकामनाएं उनके साथ है. मैं ऐसी मंगलकामना करता हूं कि उनकी मनोकामना फलीभूत हो और वो विदेशी धरती पर अच्छे से सेटल हो जाएं. टाइम्स ऑफ इण्डिया के अमेरिका में तैनात पत्रकार चिद्दानंद राजघटे कहते हैं कि भारत जैसे देश के लिए ब्रेन ड्रेन तो देश भक्ति की बात है. ऐसा देश जहां इतनी व्यापक जनसंख्या है, वहां कहीं खड़े होने पर कोहनी खोलने की पूरी जगह नहीं मिलती, वहां लोग अगर विदेश जाकर खुद को जमाते हैं, वो देश भक्ति है. लेकिन भारत के एक बड़े लेखक वेद प्रकाश वैदिक कहते हैं कि भारत वो अभागा देश है जिसने संसार में सबसे ज्यादा प्रतिभाएं विदेश में खोई हैं. अपने घर में उन्हें टिकाने की व्यवस्था होती, तो वो देश को चमकाते.
संसार में विदेश गमन में भारत का पहला स्थान होने को लेकर विभिन्न मत हो सकते हैं. लेकिन मैं तो यही कहूंगा कि अगर हमारे युवा उस विकल्प के अलावा दूसरी बात सुनने को तैयार नहीं, तो बहुत अच्छा है कि वो परदेस के लिए उड़ान भरें. लेकिन एक शिक्षक, पत्रकार और लेखक के तौर पर मेरे इस कड़े प्रश्न पर विचार करने की हिमायत मैं करुंगा: विदेशों में सभी भारतीयों की वैधानिक एंट्री और बिना किसी चिन्ता और अस्थायित्व के भय के रोजगार के अवसर तलाशाने का एक ठोस चैनल कौन बनाएगा? वो शुरुआत कौन करेगा कि जो भारत को श्रम योगदान का ब्रांड बनाए? यह प्रश्न इसलिए बड़ा हो जाता है कि इतनी भारी संख्या के देश में हर तीसरा युवा विदेश के अलावा कुछ सुनकर तैयार नहीं? ऐसे चाहवानों की संख्या बिजली की रफतार से बढ़ रही है. ऐसे में उनकी सम्माजनक खपत की भूमि भी तो तैयार होनी चाहिए. नहीं तो हालात बड़े विषम हो जाएंगे.
डॉ. प्रदीप कुमार राय वर्तमान में कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के जनसंचार एवम् मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान में सहायक प्रोफेसर हैं. 2015 में यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य आरंभ करने से पहले आप 14 वर्षों तक विभिन्न राष्ट्रीय समाचार पत्रों में बतौर रिपोर्टर कार्यरत रहे. इन दिनों भारत के कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों के सम्पादकीय पृष्ठ के लिए विभिन्न विषयों पर लेख लिखते हैं. और बतौर व्यंग्य लेखकर भी विभिन्न कॉलम के लिए लिखते रहे हैं. भारत के हजारों साल पुरानी ज्ञान परम्परा की 21 वीं सदी में उपयोगिता पर आप कई वर्षों से कार्य कर रहे हैं. इसी विषय पर आप यूनेस्को के निमंत्रण पर यूरोप के दो देशों में अपना शोध कार्य प्रस्तुत करने गए थे. पुर्तगाल में भी आपने प्राचीन भारतीय सिद्धांतों पर शोध कार्य प्रस्तुत किया है.
इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और इन्हें एनआरआईअफेयर्स के विचार न माना जाए.
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