इस बार लॉकडाउन हुआ तो पुलिस के डंडे मारने और लोगों को पीटने की घटनाएं बहुत कम सामने आईं. लॉकडाउन का नाम सुन कर लोग चुपचाप अपने घरों में चले गए.
गौरव आसरी
आज सुबह जब मैं टहलने निकला तो देखा कि एक तालाब के पास एक बैलगाड़ी खड़ी थी. बैल अपनी लकड़ी की गाड़ी से थोड़ी दूर खड़ा था. गाड़ीवान तालाब से पानी भर कर ला रहा था. गाड़ीवान ने पानी अपनी गाड़ी में रखा और गाड़ी का अगला भाग हाथ से ऊपर उठा दिया. बैल उसे देख कर खुद-ब-खुद गाड़ी में आ गया और अपनी गदर्न झकुाकर खड़ा हो गया। गाड़ीवान ने बिना किसी कष्ट के गाड़ी, बैल की गदर्न पर रख दी और बैल ने गाड़ी खींचना शुरू कर दिया.
मनौवैज्ञानिक स्किनर ने इसे Operant Conditioning का नाम दिया है. यानी कोई भी जीव (इंसान या जानवर) जब किसी सज़ा के डर से या इनाम के लालच में वैसा ही बतार्व करने लगे जैसा कि निंयत्रक उससे करवाना चाहता है, उसे Operant Conditioning कहते हैं.
अब ज़रा आप देश को देखिए. पिछले साल जब पहली बार लॉक डाउन हुआ था, तो देश के ज़्यादातर लोगों के लिए ये शब्द भी नया था। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि लॉकडाउन क्या होता है. इसमें क्या करना होता है. सरकार और पुलिस बार-बार चिल्ला रहे थे कि घर में बैठो, घर में बैठो। लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि अपना काम छोड़ कर, पूरा समय घर में बैठे रहना कैसे सम्भव है. तो वे बाहर निकल जा रहे थे. करोड़ों मज़दूर घर जाने के लिए पैदल ही निकल पड़े थे.
ना तो लोगों को अंदाज़ा था कि क्या करना है और ना ही सरकार को पता था कि लोगों को घर में कैसे बिठाना है. लोग सब्जी बेचने, दुकान खोलने, क्रिकेट और ताश खेलने, झुंड में बैठकर हुक्का पीने, और तो और कोरोना के खिलाफ रैलियां निकलने के लिए भी घर से निकल रहे थे. उन्हें घर में बिठाने के लिए पुलिस ने डंडे चलाने शुरू किए. बहुत से बेकूसर लोग, जो मजबूरी में निकल रहे थे, उन डंडों का शिकार बने. जैसे-तैसे प्रशासन ने पहला लॉकडाउन निकाला था.
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एक साल बीता और लॉक डाउन फिर आया. लेकिन इस बार पुलिस के डंडे मारने और लोगों को पीटने की घटनाएं बहुत कम सामने आईं. लॉकडाउन का नाम सुन कर लोग चुपचाप अपने घरों में चले गए. बिल्कुल गाड़ी के उस बैल की तरह गर्दन झुकाकर. क्योंकि इस बार सबको पता था कि लॉकडाउ क्या होता है, उसे तोड़ने पर क्या सजा मिल सकती है और जुर्माना हो सकता है. मास्क का इस्तेमाल भी अधिक दिखा. पर इसकी वजह कोरोना की गंभीरता का डर और मरते हुए लोगों की कतारों की डरावनी तस्वीरें भी रही होंगी. लेकिन इन सब डरों से हमने घरों में बंद रहना सीख ही लिया.
क्या हमारा इस तरह Conditioned हो जाना ख़तरनाक है. अभी तो बात बस कोरोना की है. यह एक महामारी है जो हमारी मजबूरी है. इसमें कोई शक नहीं कि घर में रहना ज़रूरी है. लेकिन सोचिए, इस महामारी के बहाने सरकारों ने पूरे देश को लॉकडाउन करना भी सीख लिया है. ये महामारी तो चली जाएगी, लेकिन हमारे ज़हन में बस गया ये शब्द लॉकडाउन नहीं जाएगा. अगली बार, अगर कभी कोई आंदोलन होता है, किसी बात पर सरकार का विरोध होता है, या लोग सरकार से लोग ख़फा होने लगते हैं, तो बस एक शब्द बोलना होगा, लॉकडाउन. और हम किसी बैल की तरह गर्दन झुकाकर अपने आप छकड़े में जुड़ जाएंगे. क्योंकि अब हमें लॉकडाउन का अभ्यास कराया जा चुका है.
आप कह सकते हैं कि कर्फ्यू तो पहले भी हुआ करते थे. लेकिन कर्फ्यू की तुलना लॉकडाउन से नहीं की जा सकती. कर्फ्यू किसी बेहद गंभीर स्थिति में किसी छोटे से क्षेत्र को बंद करने का नाम है. लेकिन पूरे के पूरे देश को एक साथ बंद करने का यह अनुभव हमारी पीढ़ी के लिए तो निश्चित तौर पर नया है.
बेशक, आप कह सकते हैं कि ये केवल मेरा एक डरावना क़यास है, जिसका कोई ठोस आधार नहीं है. सही बात है कि आंकडों का जाल देकर तो मैं इस कयास को सच नहीं बना सकता, लेकिन मैंने पुतिन को रूस के संचालक से राजा बनते देखा है. चीन को शी जिन पिंग का गुलाम बनते देखा है. और यह सब मानव स्वभाव के कारण हुआ है. यह मानव स्वभाव मेरे कयास का आधार है. सत्ता में बैठे लोग अक्सर डरपोक होते हैं और अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए पूरी ताकत झोंक सकते हैं. ऐसा जाने कितनी बार देखा जा चुका है. लेकिन अब तक ऐसा होता था तो कम से कम भारत में लोग घरों में नहीं सड़कों पर निकल पड़ते थे. इस बार शायद ऐसा ना हो. इस बार सिंहासन पर बैठा शख्स बस लॉकडाउन चिल्लाएगा. बाकी सब काम लॉकडाउन के बैल कर देंगे.
गौरव आसरी फिल्म लेखक और निर्देशक हैं. वह कई फिल्में बना चुके हैं. उनकी शॉर्ट फिल्मों ‘बंजर’ और ‘काऊमेडी’ को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार मिले हैं.
मुख्य तस्वीरः “Less-Life” by rhlchkrbrty is licensed under CC BY-NC-ND 2.0
इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और इन्हें एनआरआईअफेयर्स के विचार न माना जाए.