पिता हमारी ज़िंदगी में इंस्टिट्यूशन की तरह होते हैं। हममें से ज़्यादातर लोगों ने अपने पिता को ही घर का मुखिया, फ़ैसले लेने वाले के तौर पर देखा। लड़कियों की ज़िंदगी में पिता ही वह पहला शख्स होता है जिसके चेहरे से वह बाहर की दुनिया देखती हैं।
स्मिता मुग्धा का ब्लॉग |
दो दिन पहले दुनिया भर में फ़ादर्स डे मनाया गया। पिछले दो दशक में भारतीय मिडिल क्लास ने कई नए त्योहार और उत्सव मनाने शुरू किए हैं जिनकी बानगी ये डे हैं। सोशल मीडिया ख़ास तौर पर फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर ऐसे दिनों में अगर आप रैंडमली स्क्रोल करें तो आपको लगेगा कि भारतीय समाज दुनिया का सबसे पवित्र और लबालब प्रेम और मानवीय मूल्यों से भरा समाज है। पुरुषों ने अपने पिताओं या जो पिता बन चुके हैं उन्होंने अपने बच्चों के साथ तस्वीरें शेयर कर प्यार-दुलार बरसाया। महिलाएं ने तो एक कदम आगे बढ़कर पापा के साथ-साथ पापाजी (ससुर) को भी बेस्ट डैड बताते हुए पोस्ट लिखीं। पोस्ट लिखने या भावनाओं के इज़हार से कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि मैं तो इनके खुलकर इज़हार करने में ज़्यादा यकीन रखती हूं। मैंने थोड़ा विश्लेषण के अंदाज़ में इन पोस्ट को देखा और लगा कि सबके पापा बेहतरीन पिता हैं, दुनिया के सबसे अच्छे इंसान, बेस्ट पापा।
मेरी सोच की धुरी यहीं चकमा खा जाती है। हम हिंदुस्तानियों की आदत है कि हमें व्यक्ति पूजा अच्छी लगती है। व्यक्ति पूजा और कल्ट छवि के लिए सनक का आलम भारत की पिछले सात सालों में हुई हालत के रूप में व्यापक स्तर पर देख सकते हैं। बहरहाल मेरा इरादा राजनीति की तरफ़ मुड़ने का नहीं है। सबके पापा बेस्ट पापा हैं, सबके पिताओं ने अपने बच्चों की परवरिश के लिए क्रांतिकारी फ़ैसले लिए, अगर यह सच होता तो यह समाज कुछ ज़्यादा बेहतर होता। दिक्कत भावनाओं से नहीं है, दिक्कत व्यक्ति पूजा की उस आदत से है जो किसी भी व्यक्तित्व को उसके सर्वांगीण रूप में नहीं स्वीकारता। गुण है तो अवगुण भी होंगे, क्योंकि ऐसे ही द्वैत और विरोधाभासों से हमारा व्यक्तित्व बनता है।
पिता हमारी ज़िंदगी में इंस्टिट्यूशन की तरह होते हैं। हममें से ज़्यादातर लोगों ने अपने पिता को ही घर का मुखिया, फ़ैसले लेने वाले के तौर पर देखा। लड़कियों की ज़िंदगी में पिता ही वह पहला शख्स होता है जिसके चेहरे से वह बाहर की दुनिया देखती हैं। पिता को देखकर ही हम मर्दों की दुनिया को किस तरह देखना है और वह कैसी हो सकती है, इसके लिए अभ्यस्त होते हैं। पिता ममतामयी भी हो सकता है या कठोर भी, फ़ैसले लेने वाला भी या वर्चस्व चलाने वाला भी।
मैं आज पूरी ज़िम्मेदारी और बिना किसी अपराधबोध के कह रही हूं कि मेरे पिता दुनिया के बेस्ट पापा नहीं हैं। वह कुछ अर्थों में प्रगतिशील पिता रहे कि उन्होंने माना कि बेटियों को पढ़ाना ज़रूरी है। वह साहसी पिता भी हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी बेटियों को पढ़ाने और उनकी नौकरी करने के अधिकार के लिए घरेलू स्तर पर ही सही, रिश्तेदारों के शाश्वत तानों को सहा, लेकिन डटे रहे। वह ममता से भी भरे थे, क्योंकि मैंने उन्हें कभी बेटे या बेटी के लिए अलग तरह से व्यवहार करते नहीं देखा। उन्हें खुद में लगातार बदलते और सुधार करते देखा। मैंने कभी घर के दूसरे मर्दों की तरह उन्हें वाहियात औरतों पर बनने वाले कॉमेडी शोज पर ही ही ही कर ठहाके लगाते या किसी रिश्तेदार महिला के साथ चुटकुलों और मज़ाक के नाम पर ठहाके लगाते नहीं देखा। हालांकि, कुछ ख़ास मौकों पर वह बहुत दिलचस्प अंदाज़ में मुस्कुराते ज़रूर हैं। इसके बावजूद वह बेस्ट नहीं हैं क्योंकि उनके व्यक्तित्व की अपनी सीमाएं हैं। मसलन वह आरक्षण का समर्थन नहीं करते, होमोसेक्सुअलिटी उनके लिए स्वाभाविक चीज़ नहीं है, अंतर्जातीय विवाहों पर उनकी रिजिडनेस पिछले कुछ वर्षों में कम ज़रूर हुई, लेकिन अपनी ज़िंदगी के बड़े हिस्से में वह जातिवाद से मुक्त तो नहीं ही हो सके।
जब हम या आप या कोई भी यह कहता है कि मेरी मां या मेरे पिता या मेरा परिवार बेस्ट है, आदर्श है, तो हमें ठहरकर सोचने की ज़रूरत है। क्या अपने परिवारों या पिताओं या रिश्तों को बेस्ट बनाकर हम स्वाभाविक तौर पर समाज में चली आ रही बजबजाती परंपराओं और कुप्रथाओं को भी तो बेस्ट नहीं बना रहे? आपके पिता सबसे अच्छे पिता हैं, तो पूछिए खुद से कि क्या भाई के तौर पर उन्होंने आपकी बुआ को संपत्ति में से हिस्सा दिया? आप अपने बच्चे के लिए सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं, इससे आप बेस्ट पिता नहीं हो सकते, क्योंकि इस दुनिया के उन बच्चों के लिए भी आपकी कामना सर्वश्रेष्ठ की होनी चाहिए जो जन्म से उच्च जाति या प्रिविलेज के साथ पैदा नहीं हुए।
मुद्दा यह नहीं है कि पिता अपने बच्चे की परवरिश के लिए क्या करता है। मुद्दा यह है कि पिता और भूमिकाओं चाहे वह देश के नागरिक के तौर पर हो, पति के तौर पर हो या भाई के रूप में, उन्हें कैसे निभाता है। भारतीय समाज में यही सच है कि सवर्ण-समृद्ध पिताओं ने भाई के तौर पर बहनों को संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया और आदतन ही बेटियों को संपत्ति में हिस्सा नहीं देंगे। इन्हीं पिताओं ने अपनी बेटियों को नौकरी करने बड़े शहर भेजा, लेकिन उनके अंतर्जातीय विवाह से उन्हें सख्त आपत्ति रही। इन पिताओं ने अपनी बेटियों से प्रेम किया, लेकिन पितृसत्ता और जातीय वर्चस्व से शायद अधिक प्रेम किया। बतौर पिता इन्होंने अपने बेटों को सांप्रदायिक नहीं होना, जेंडर सेंसेटिव होना नहीं सिखाया। अब इनके बेटे भी पिता हैं जो बहुत आसानी से अपनी पत्नियों से कह देते हैं कि तुम नौकरी छोड़कर घर संभालो, मैं सब देख लूंगा। भारत में वे भी पिता ही हैं जो पेट में बेटियों को मार देते हैं और जन्म के बाद प्रेम करने पर। ऐसे ही कुछ पिता होते हैं जो बेटियों के लिए दहेज़ जोड़ते हैं और बेटों के लिए इंजीनियरिंग या मेडिकल की फ़ीस और फिर उन्हीं बेटों के लिए किसी और की बेटी को बहू बनाकर भरपूर दहेज़ के साथ लाते हैं।
पिता की ज़िम्मेदारी बड़ी होती है, महान होती है, उसे निभाने के लिए प्रेम करना आना चाहिए। उसे निभाते हुए करुणा होनी चाहिए और यह करुणा घर से शुरू होगी जिसमें बराबरी अनिवार्य शर्त है। इस बराबरी की शुरुआत बेडरूम से होनी चाहिए जहां बेस्ट पिताओं की बेस्ट बनने की ही कोशिश में जुटी मांएं आपके साथ कमरा, जीवन और ज़िम्मेदारियां शेयर करती हैं।
प्रिय पाठकों! या आलोचकों! अगर आप ऐसी ही एक डरपोक लेकिन झूठी हिम्मती लड़की के साथ बातचीत ज़ारी रखना चाहते हैं, तो मैं हर हफ़्ते हाज़िर हो जाऊंगी। कभी हम बात करेंगे, कभी बस यूं ही कोई मोनोलॉग हो सकता है या कभी आप जो जानना चाहें या पढ़ना चाहें, वो मैं लेकर आऊंगी। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
स्मिता मुग्धा पत्रकार हैं. सच कहने का साहस रखती हैं. सोशल मीडिया पर सच के लिए अक्सर जूझती नजर आती हैं. यहां आपको सच से सामना कराती रहेंगी.
इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और इन्हें एनआरआईअफेयर्स के विचार न माना जाए.
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