कवि, कथाकार और आलोचक भरत प्रसाद की 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. पढ़िए, उनकी कहानी…
परम पिता परमात्मा को साक्षात् देखने का दावा आज तक किसने किया है! फिर भी एक,एक मनुष्य के दिल में क्या गजब का घर किए हुए हैं वह! शरीर राख हो जाने बाद कुछ बचता भी है क्या? मगर नहीं स्वर्ग,नरक का आतंक प्राणी को ऐसा भरमाता है, जैसे अंधे गुलाम को दो आँखों और सौ हाथों वाला तानाशाह. बिल्कुल, बिल्कुल इसी तरह भूत महोदय से आज तक किसकी मुठभेड़, मुलाकात, टकराहट, बातचीत, गुफ्तगू या गलबहियां हुई हैं? यदि हुई भी होंगी, तो दुनिया को बताने के लिए वह बचा कहां होगा? भूत का भूत हमारे, आपके, उनके, उन, उनके माथे पर सदियों, शताब्दियों से सवार है. चाहे तांबा, लोहा, चांदी, सोना इत्यादि कोई भी युग आ जाए, मगर हमारे माथे पर भूत की सवारी सदाबहार. रात 12 बजे के बाद जरा निकल तो जाइए कहीं अकेले नदी, पोखर, जंगल, रेगिस्तान के किनारे, बोटी-बोटी बजरंगबली की गुहार न लगाने लगे तो कहिए. जो चित्त में है, सामने नहीं, मस्तक पर है, दिखता नहीं, आँखों में है, मगर अदृश्य है, निश्चय ही मनुष्य के लिए अनिवार्य आतंक बन जाता है. यही ईश्वर है, यही भूत है, पिशाच है, बरम है.
भक्तिकाल के लोकनायक बाबा तुलसीदास रहे होंगे परम ज्ञानी, मगर थे तो आपकी, हमारी तरह धड़कते हुए दिल के आदमी ही. जहां दिल है, वहां भय होगा, जहां भय है, वहां अंध भक्ति तय और जहां अंध भक्ति पनप गयी, वहां मनुष्य को निरीह गुलाम बनने से कौन बचा सकता है? बाबा को अकबर की ताकत से भय न लगा, मुर्दे पर बैठकर बढ़ियाई नदी पार करते या सांपनाथ की पूंछ से लटककर रत्नावली के सामने पेश होते समय भी डर न लगा, लगा तो परले दर्जे तक अगोचर रहने वाले भूत महोदय से, लिखा हनुमान चालीसा में, ‘भूत पिसाच निकट नहीं आवें, महावीर जब नाम सुनावें.’ अब क्या पृष्ठ संख्या भी देनी पड़ेगी?
दोनों हाथों में उतनी ही अंगुलियां जितनी हमारी, आपकी, गोल, मटोल माथा में उतने ही नाक, कान, आँख जितना आदमी कहलाने वाले किसी व्यक्ति के. पैर मुंह की दिशा में सदैव तत्पर. लेकिन इतने भर से कोई आदमी कैसे कहला सकता है? हमारी अपनी इसी दुनिया में दस हाथ, दस पैर, दस मुंह, दस सिर वाले हैं कि नहीं? एक हंसी में दस-दस हंसी का राज. एक वाक्य में चार-चार अर्थों का रहस्य. एक कदम में अनेकों आगा-पीछा की चालाकी. एक नजर में दर्जनों गुप्त विचारों का बल. एक रंग, एक रूप, एक अंग, एक आकार में दिखता हुआ आदमी एक व्यक्तित्व वाला है कहां? आँख के पीछे आँख, व्यवहार के पीछे व्यवहार, कदम के पीछे कदम, हंसी के पीछे हंसी, मुंह के पीछे मुंह.
आदमी जब तक जिन्दा है, भूत नहीं हो सकता, और यदि भूत हो गया तो आदमी कहां रहा? मगर नहीं, चमत्कार भी तो कोई चीज होती है कि नहीं? हमारे आपके आस-पास, अगल-बगल, आजू-बाजू ऐसे सैकड़ों आदमी हैं जो भूत हैं, और ऐसे हजारों भूत हैं जो आदमी हैं. हूबहू बोलते-बोलते, हंसते, रोते, गाते, खाते, चिल्लाते, हारते, पछताते, जहर के आंसू रोते हुए भूत. ये भूत ताकतवर भूतों से कांपते हैं, बुरी तरह मात खाते हैं, टूट-टूटकर बिखर जाते हैं. आदमीनुमा इन भूतों की गिनती न इंसानों में रह गयी है, न ही भूतों में. मरे नहीं, इसलिए इंसान होने का बोझ ढो रहे हैं. आदमी जैसे हो नहीं पाए, इसलिए भूत कहलाने को अभिशप्त. रमई, कल्लू, चन्द्रमा, परीखन, भग्गू, और भी न जाने कई नाम हो सकते हैं, ऐसे भूतों में से एक चेहरा क्यों न उठा लिया जाये?
गांव, देहात, कस्बों में मदारियों का खेल तमाशा कौन नहीं जानता? लानत है उसकी आंखों को, जिसने डमरू बजाकर पागल करते मदारियों की जादूगरी नहीं देखी. मेहरबान, कदरदान, ‘साहिबान’ की बोल सुनते ही बचवा लोग लंगोट, जघियां पहने हनक चलते हैं. बुढ़ऊ काका लाठी पर घेंचा ठिकाए बन्दरिया का करतब मिचमिचाई आँखों से पीने लगते हैं. अगल-बगल की लरकोर भाभियां दो अंगुलियों की कैंची में घूंघट फंसाकर दरवज्जे के कोने में जड़ हो जाती हैं. इधर घघरा पहने बन्दरिया ससुराल चली, उधर भाभी की आँखें नम होने लगीं. बन्दर लाट साहब की मुद्रा में दुल्हन ब्याह कर घर चला. माथे पर टोपी, गरदन पर पहलवानों की तरह लाठी, मगर यह क्या, पांव में घुंघरू? हाँ, बन्दर मियां की बीबी बीच-बीच रूठ जाती है, जिसे रिझाने के लिए नाचना तो पड़ेगा न!
बंगाल के चैबीस परगना में ऐसे खेल-तमाशे, गांव-गांव, कस्बे-कस्बे में आए दिन गुलजार ही रहते थे. बस्तियों-गांवों में किसी के पास रुपया कहां जुटता है? शरीर ले लो, इज्जत ले लो, मान-सम्मान ले लो, मगर पैसा हासिल करने का ख्वाब मत देखो. पैसा नचाता है, पैसा हंसाता है, रूलाता है, करीब लाता है, दूर भगाता है, चुप करता है, बोलता है, सुलाता है, मार देता है, जानवर बना डालता है. पैसा मतलब आँखें, पैसा मतलब धड़कन, पैसा मतलब सांसें, पैसा मतलब चेहरे पर बात. वहां चैबीस परगना में होंगे हजारों मदारी-खेलाड़ी, मगर सरनाम उस्ताद तो एक ही है. ‘पाकुड़ा’ गाँव का जोकर. मेले,ठेले में बहुरूपिया का चोला ओढ़ लेता है, सदर बाजार में बजरंगबली की पूंछ पुट्ठे पर साट लेता है. पीछे-पीछे एक, बीस लुक्कड़ों का हुजूम, ‘बजरंगबली की जय-जयकार’ ठोंकता हुआ. जिला-जवार के गाँव-गाँव, घर-घर में लोकप्रिय है यह हनुमान. बज्र बौना होने के कारण जुबान हरमुनिया की आवाज की तरह पतली है. इसीलिए यह उस्ताद अधिकांश करतब इशारों में निपटाता है. ऐसे बहुरूपिये का रोल साधता है, जिसमें बोलना ही न पड़े. वरना सजधज है पवन पुत्र हनुमान की और मुख से धुन फूटती है छछूंदर जैसी तो लुक्कड़ों के बीच भद्द पिटेगी कि नहीं?
लकलक गर्मी का महीना, धान कट-कुट कर घर में आ चुके हैं. बियाह, गौना के दिन, तिलक-बरछा के दिन, रतजग्गा करके नौटंकी देखने के दिन, ढोलक, नगाड़ा की तान पर मन पगलाने के दिन. गांव, देहात में मनोरंजन की खबरें संक्रामक बीमारी जैसी होती हैं. कोई किसी का कान फूंकते हुए नहीं देखा जाता, मगर वाह रे जीभ! तू पलक झपकते न जाने कितने कानों में घुस जाती है. कानों-कान फैली खबर, मची बेचैनी, तबियत सनक गई. आज हनुमान जोकर नौटंकी खेलने जा रहा है. बच्चे तो अपनी जगह, लखन कुम्हार, रजपति लुहार, कन्हाई केवट जिन्हें अपने धन्धे में दम मारने की फुरसत नहीं, वे भी हनुमनवा की जोकरई पर ताली पीटने के लिए बेकाबू हुआ चाहते हैं. नौटंकी देखने की वह नशीली रात सबके सामने आ ही गयी. नौटंकी कलाकारों ने तख्त के मंच पर कतारबद्ध होकर वन्दना प्रस्तुत की, ‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो, तुम्हीं हो बंधू, सखा तुम्हीं हो. तुम्हीं हो नइया…’ ढोलक मास्टर ने लय-ताल भिड़ायी, डिम डम् डम, डम् डं, डिम् डं डिडडम डिमम् डडम् डम्. नगाड़ा उस्ताद वन्दना की हर पंक्ति पर ताल नहीं देते. बस बीच-बीच में कान भेदी चोट, तड़ड़ड़ड़ ऽ ऽ ऽ ऽ धम् ऽ ऽ ऽ ऽ. छोटी, मझोली, कंटीली, रसीली, शर्मीली, खडूस, नशीली हजारों किस्म की आँखें सिर्फ एक मास्टर को मंच पर ढूंढ़ रही थीं, छड़ी जैसी शरीर, बत्तख की तरह चाल चैबीस किलो वाला भूत भारी-भरकमों के बीच कैसे दिखता? मंच के कोने खड़ा हाथ जोड़े यूं वन्दना कर रहा था, मानो शोरूम के बाहर अभिवादन करता दरबान का कट खड़ा हो. ये….ये…. ये पर्दा गिरा और मंच की पृष्ठभूमि में हिरन का पीछा करता हुआ बाघ पर्दे पर हिलने लगा. नहीं-नहीं यह तो क्षणिक सत्य था. पर्दा देखते ही देखते उठ चला. मंच के बाईं ओर से चमकती आंखों वाला, लंगोटधारी, बज्र करिया भुतहा चेहरा आता दिखाई दिया. नगाड़ची खामोश, हरमुनिया मास्टर हक्क और दर्शकवृन्द के बीच भी सुन्न बटा सन्नाटा. ऊपर से मजा यह कि मंच की बत्तियां गुल. आठ-आठ, पाँच-पाँच साल वाले बच्चे भय और रोमांच, उत्साह और आश्चर्य के मारे लगे चांव-चांव करने. बत्तियां जलीं, एक-एक कर जलीं, चकाचक जलीं और रहस्य से भी पर्दा उठ गया, यह चैबीस किलो का भूत खुद हनुमनवा था. प्रेम से बोलिए, भूत महराज की जय!
जिला चैबीस परगना, देश के अन्य जिलों से अलग कैसे हो सकता था? यहां भी नून-तेल, लकड़ी का वही जीवन संग्राम, गंवई लोग-बाग के बीच दवा, मरहम, पट्टी का वही पुराना अकाल. नौ की लकड़ी, तेरह खर्च का वही रोना. गड्ढा खाई हुई, पिचकी और ऐंठी सड़कों पर बीमार जनता की वही भागती नियति और खून, पसीने की शर्त पर एक-एक दिन काटने की अकथ पीड़ा. ‘पाकुड़ा’ गाँव के आसपास ऐसे कई दर्जन गाँव थे, जहां गरीबी, लाचारी और भूख ने अपने-अपने पंजों को कइयों के गले तक पहुंचा रखा था, पूरी ताकत के साथ, मायाजाल के साथ, आतंक के साथ. हनुमान जोकर इसी भूख की मार खा-खाकर खड़ा होने वाला अद्भुत ढांचा था. उस गुमनाम बेरंग अंचल में ऐसे सैकड़ों मां-बाप थे, जो न खुद चार पैसे का धन्धा करते थे न ही उनके सपूत इस काबिल थे कि घर-परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठा सकें. पिछले तकरीबन 40-50 वर्षों से यहां की दिशाओं में रहस्यमय षड्यंत्र की बदबू सी जमी रहती है. कानों में क्षितिज के फासले गूंजते हैं और अंचल की जमीन अपने मौन में अहकती रहती है.
देर शाम जब झोपड़ियां अंधकार में डूब जाती हैं, तब कई परिवारों में रतजगा होता है. आमने-सामने गुफ्तगू होती है, सौदा पटता है, दिन-तारीख तय होती है और दारू की बोतलें टूटने की आवाज करती हैं. कन्हाई सेठ, जंगी मियां, कल्लू भैया बस नाम के ही अलग-अलग हैं, काम और चाम तीनों का एक जैसा. एक रात का मसला, कन्हाई सेठ ऐन शाम के घण्टे भर बाद अपनी पर्दाबंद जीप में बैठा हुआ बस्ती से निकला, एक और बाजी मारकर. अरे, रे यह क्या? चार फुट का पुतला पहाड़ बनकर क्यों खड़ा है? टटके अंधकार में उसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा, वह कुछ बोल भी नहीं रहा. किसकी हिम्मत है जो सुनसान रास्ते पर यूं बीच में आ जाए? नहीं-नहीं यह आदमी नहीं हो सकता. तो फिर? क्या यह कोई? मैं भी सनक गया हूं. लगाता हूं एक डांट, अभी सारी हीरोगिरी निकल जाएगी. ‘हे, हलो! सड़क में मरने को क्यों खड़ा है? हट जा आगे से.’ किसी आदमी को कंपाने वाली पर्याप्त कड़क थी, कन्हाई सेठ की आवाज में. परन्तु सामने खड़ी काली माया पर बाल बराबर भी असर नहीं. इस कड़क के उत्तर में कान छेद देने वाली आवाज तीर की तरह निकली, ‘कौन है तू? किसे साथ ले जा रहा है? छोड दे उसे, कहे देता हूं.’
ऐसी आवाज कन्हाई ने कभी सुनी ही नहीं थी. आदमी तो ऐसा विचित्र बोल ही नहीं सकता. फिर यह है कौन? कन्हाई सिर से पांव तक शंका, क्रोध, भय, पराजय बोध और मृत्यु की अन्तर्ध्वनि में डूबने-उतराने लगा. मालूम हुआ जैसे रोम-रोम के नीचे खून की जगह बर्फ जम गयी हो. सेकेण्डों में पीली और ठण्डी हो गयी शरीर से पसीने की बूंदों को कौन देख सकता था? हाय रे दुबर्लता! आदमी को भस्म करने वाली आत्मघाती ज्वाला तू ही है, मूर्ख आदमी आजतक तुझे कहां जीत पाया है? सामने खड़ी माया को दूर भगाने की अन्तिम चाल चली कन्हाई ने. गाड़ी से बाहर निकलने की हिम्मत जबाव दे चुकी थी. उसकी फिर वही कड़क आवाज, ‘तू जो भी है, मैं नहीं डरता. तुझ जैसे कितने सड़कछाप मायावियों को ठिकाने लगा चुका हूं. तू पिद्दी भर का कुत्ता. रूक! कुचलता हूं अभी.’ कहते हुए कन्हाई ने जैसे ही जीप स्टार्ट की, काली मूर्ति ठीक सामने गाड़ी से सटकर खड़ी हो गयी. हेडलाइट की सख्त रोशनी के बावजूद इस मूर्ति का चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था. क्रोध के मारे कांपते, दोनों हाथों को नचाते हुए किटकिट आवाज में छाया ने ललकारा, ‘है, हि, म्म, त, ता, चढ़ा, गा, ड़ी. कु, च, ल, मु, झे. ते, री, मौत, ते, रे, सा, मने, ख, ड़ी, है.’ कन्हाई को 1001 प्रतिशत यकीन हो गया कि आज जीवन में पहली बार किसी उल्टे पैर वाले आदमी से मुठभेड़ हुई है. यह न शकल से, न आवाज से, न कदकाठी से आदमी है. सचमुच यह कोई भूत है क्या? कोई इंसान दूसरे के आक्रमण से बच भी जाय, किन्तु अपने भीतर उत्पन्न भय के आक्रमण से? कतई नहीं. कन्हाई भगा जीप छोड़कर और देखते ही देखते अंधकार में न जाने किधर गायब हो गया. जीप के पीछे सूखे काठ की तरह बैठी ‘फुरगुद्दी’ को पता था कि कन्हाई के सिर पर यमराज बनकर नाचने वाला यह काला भूत कौन है?
सीधे, सरल और सच्चे आदमी के पास दो ही आँखें, दो ही हाथ और दो ही पैर होते हैं. जबकि गांठदार, घुमावदार और ऐंठू आदमी के पास दर्जनों आँखें, दर्जनों हाथ और खालिस दो हाथ और दो पैर के साथ जीने वाला आदमी, कोई आदमी होता है? एक दर्जन से भी अधिक वर्षों से अपने रोजगार को पालते-पोसते आ रहे कन्हैया को यह अनुमान हो गया कि धन्धे को और बारीकी से अंजाम देने का वक्त आ गया है. अब बस्तियों में ऐसे कदम रखना है कि पता न पावें सीता-राम. छोकरी के माई-बाप को रकम रूपी लड्डू की ऐसी थाली परोसनी है कि जुबान ही नहीं, दिल-दिमाग का दरवाजा कसके बन्द हो जाए. कब, कहां, किसके घर धन्धागिरी चटकानी है, यह खुद के सिवा धरती पर किसी को खबर न लगे. मुँह में खून लगने का चस्का कुत्ता भी छोड़ सकता है, मगर आदमी? कुत्ते से दोगुना कुत्ता है. यदि उसके मुँह खून लग गया, तो कीड़े-मकोड़े, सांप, बिच्छू, जानवर सबको पीछे छोड़ देगा. उसका शरीर पृथ्वी के समस्त जहरीली आत्माओं का अड्डा बन जाता है. जंगी मियां और कल्लू सेठ इस बार पाँच-छह युवतियों को नौकरी का ख्वाब दिखाने में सफल रहे. गवर्नर के हस्ताक्षर वाली नोटों की गड्डी देखकर सुगना के बाप की जुबान को लकवा मार गया. नसेड़ी और अड्डेबाज बाप ने रुपये की बचत करना कभी जाना ही न था. रुपया लेते ही जंगी के सामने बजबजाती भाषा में लगा लिजलिजाने. सुगना के अलावा बबुनी, अजोरिया, झुलनी और डोली को ले चला साथ अल्लह भोर के चार बजे, जब सारा गाँव खर्राटों की तान में डूबा होता है, जब नींद पूरी तरह खिल उठती है. जंगी इन पांचों मासूम सूरतों को ले आया कलकत्ते. मनमाने दामों में बेंच डाला इन्हें. अस्सी हजार, पचास हजार, एक लाख. एक लाख में बिकने वाली झुलनी सबसे उम्रदराज थी, 14 साल की. वीजा, पासपोर्ट पहले से तैयार. भेड़-बकरी की तरह उसे जहाज पर लाद दिया गया. आदमी की तरह दिखने वाले भुतहा चेहरों से वह विनती की, गिड़गिड़ाई, जार, बेजार रेाई, पैरों से लिपट गयी, अपनी मुक्ति के लिए नहीं, सिर्फ इसके लिए कि उससे उसका वतन न छीना जाय. मगर उसकी पुकार सुनता कौन?
‘पाकुड़ा’ गाँव के धुर पूरब में एक कोने हनुमान जोकर की कुटिया. अपनी बहुरुपियागिरी और जोकरई की कमाई से एक-एक पैसा जोड़कर दो कोठरी का लिंटर खड़ा कर लिया था. दिन पर दिन ढल रही है उमर. बचपन कब बीता, जवानी कब चढ़ी और बुढ़ापा कब पसरने लगा उसे कहां पता चला? जिला, जवार, बस्ती के नौजवान मानो उसके रेावां-रेावां हैं. गोल-मटोल, फुदकते, उछलते, खिखियाते, दुलराते लदभद बच्चे उसके जान-परान. वह चैन की नींद सोने वाला बच्चों का सेंटाक्लाज है और उसके लिए छः,सात साल के बच्चे अमरूद के कच्चे फल, आम की डालियों पर लटके हुए टिकोरा, जिसकी रखवाली करना हनुमान के लिए अपने प्राण से कई गुना बढ़कर है. घर के सामने पुरायठ आमों का छायादार बगीचा. स्कूल की छुट्टियों के दिन. हनुमान को नौटंकियों में जोकर बनने से फुरसत कहां? मगर महीने,दो महीने पर अपने इन्हीं सैकड़ों बच्चों के लिए मौका ढूंढ़ ही लेता है. मियां की उमर ठहरी साठ साल, मगर हाइट नापिए तो साढ़े तीन फीट. वजन मत पूछिएगा, वही घींच-घांचकर 24, नाश्ता-पानी टाइट कर लिया तो 25. बोलिए प्रेम से बावन महराज की… घर की सीढ़ी से नीचे उतरते हुए ज्यों ही वह दिखाई दिया, नंग-धड़ंग, लरहा, पेांटहा, लंगोटधारी, सांवले, दुबले, फुटबाली बच्चों की बरात यूं ताली बजाने लगी, मानो किसी भगवान को देख लिया हो. अभी वह हंसा-हंसाकर रुला मारेगा. चिलबिद्धर बन्दरों की तरह चिचियाते बच्चों को निरखकर हनुमान को भी खुजली होने लगी. पुकारा एक-एक इंच की पांच उंगलियां लहराकर, ‘हे रे नतिया! आव मेरे पास, देख मेरी मुट्ठी में का है?’ लम्बाई में जोकर से तीन गुना ज्यादा और उमर में चार गुना कम हनुमान के नाती उर्फ नन्दलाल बढ़ आये बावनेश्वर की ओर, मगर पीछे की हवा ने भी साथ छोड़ दिया. मुट्ठी खोलने के दौरान वज्र किवाड़ भी इससे कठोर क्या होगी? भूतनाथ की भाव-भंगिमा में जब हनुमान तनकर खड़ा होता तो बच्चे मारे खुशी के भूत-भूत कहकर उछलते हुए भागने लगते. चार के ऊपर दो और गिरे, पके आम की तरह. पीछे आता हुआ भूत देखने के चक्कर में चार और खिलाड़ी आपस में भिड़े. दो-चार घण्टे मां की तरह बच्चों को चौंका लेने, दौड़ा लेने और बात-बात पर नसीहतें देने के बाद जोकर हनुमान उनको कपड़े बांटता, फल देता, मिठाइयां खिलाता. पिछले बीस सालों में शायद ही कोई महीना गया हो, जिसमें इस भूत ने बच्चों को हंसाकर पस्त करने के बाद मिठाई न खिलाई हो.
झुलनी के बेवतन हुए महीने दर, महीने बीत गये. हनुमान को रह-रहकर झुलनी की याद हूल मारती, मगर अपने मन को दिलासा देता. धीर-गंभीर बचपन से ही थी, घर के काम-काज में फंसी रहती होगी. आवारा बाप और लकवाग्रस्त माई का बोझ अलग से. स्कूल का आना-जाना तो कब का बन्द हो चुका है. हमने भी कितना समझाया-बुझाया कि बिटिया स्कूल मन्दिर से पवित्र जगह है. मगर बिल्ली की तरह आँख चमकाते हुए स्कूल से पीछा ही छुड़ा लिया. चार कोस दूर गांव जाकर खबर लूं, तब तो चैन मिले. इसी सोच-विचार के जंगल में खोया हुआ हनुमान जोकर भोरहरी में खटिया से उठा और गांठ जैसी काया को पगडंडी पर झोंकता हुआ हाजिर हो गया झुमकी के घर. गांव में घर का दरवाजा कौन बन्द रखता है? बन्द रक्खे भी तो किस लिए! दरवाजे का पल्ला खुला होने के बावजूद कुंडी खड़काकर ही अन्दर जाना हनुमान को उचित जान पड़ा. एक-दो बार पुकारा भी, ‘‘बिटिया झुलनी! देख, कौन आया है? तुम्हारा भूत, तुम्हें डराने के लिए. तेरे हाथों पानी की लालच रोक नहीं पाया. आ! बाहर निकल, मेरी बिल्ली, नहीं तो भूत बनकर सपने में रुलाऊंगा.’’
दरवाजे पर हनुमान को खड़े-खड़े आधा घण्टा बीत गया. पास की बंसवारी में उलझ-पुलझकर सायं-सायं करती हवाएं उसके संदेह का उत्तर दे रही थीं. झोपड़ी के भीतर से भूत की आत्मा जैसी किसी शरीर ने आवाज दी, ‘‘हदुमाल हो, ता? आलो, अन्दल आ दालो.’’ लकवा ने झुलनी की माई को इस कदर दबोच लिया था कि एक वाक्य तो क्या, एक शब्द भी ढंग से खुल नहीं पाता था. ऐंठे हुए, रक्त शून्य मुंह के भीतर ही उलझकर दम तोड़ देता. झुलनी की माई जगमत्ती से सारी कथा सुन लेने के बाद हनुमान उठा बजरंगबली की तरह. कहां का पानी, कहां का दाना? पाप है इस घर का अन्न छूना. कसाई बाप ने अपने नशे की गुलामी के चलते बेटी को ही बेच डाला? हनुमान आज असल का भूत होता तो सबसे पहले उसी का घेंचा दबाता. अैर कमीने को तब तक चांपे रहता, जब तक वह यमलोक की ओर कूंच न कर जाता. झुलनी के घर से हवा की माफिक हनुमान यूं निकला मानो, जमीन पर पांव देना भूल चुका हो. अंग-अंग से लाचार क्रोध का लावा फूट रहा था. इस वक्त वह अपने आप में नहीं था. बिफरता, बड़बड़ाता, हुंकारता हुआ हनुमान यूं निकल रहा था, जैसे आग का गोला बेअंदाज लुढ़कता जाता हो. बित्ता भर की कद-काठी सिर से पांव तक बेतरह कांप रही थी. उधर न जाने कैसे, शायद हवाओं ने बबुनी के कानों में हनुमान बाबा के गांव आने की खबर पहुंचा दी.
अभी ढंग से झुलनी की बस्ती का आकाश छोड़ा नहीं होगा कि दस कदम पीछे से बबुनी के चिल्लाने की आवाज सुनायी दी, ‘जोकर बाबा, तनिक रूक जावो. हम तुम्हार बिटिया बबुनी. हम कुछ बात बताना चाह रही हूँ.’ बरसों बरस से सुनी-सुनाई आवाज, जिसके मोह में डूबा रहकर निःसंतान हनुमान ने बिता दिए जीवन के साठ साल. दौड़ती-हांफती आ गयी बबुनी भूत बाबा के पास और मासूम कलाइयों से उसकी कमर घेर कर रोने लगी. सालों बाद ससुराल से मायके आयी हुई बिटिया भी अपनी माँ से गले लगकर ऐसी क्या रेाती होगी! थमे आंसू, रुका विलाप, पोंछे गये एक दूसरे के आंसू और बबुनी की वाणी से शुरू हुई कथा, ‘‘बाबा! तोहरा के का मालूम? हम और हमारी चार-चार सहेलियों ने कितना नरक भोगा है? बाबू ने पिचासों के हाथों हमें साल भर पहले बेच डाला. वे दोनों हम सबको जानवर की तरह गाड़ी में भरकर ले गये कलकत्ता. एक हफ्ते तक हम सबको एक भुतहा कोठरी में नजरबंद रखा. घर जाने के लिए विद्रोह करने पर बेल्ट से, डंडे से, कभी-कभी तो लाठी से हम पांचों को पीट-पीटकर अधमुआं कर डाला. सुबह दाल-रोटी से आधा पेट भरा तो रात को खाना नहीं, और रात को कभी अन्न का दाना मिला तो दिन-दिन भर कोठरी में पड़े-पड़े भूख-प्यास से बिलबिलाना. मेरे बाबा! दोनों ने हम सबकी इज्जत लूट ली. हम उनके हाथों रेाज-रोज लूटी जाती थीं. रोज-रोज बेहोश होती थीं. रोज-रोज अपनी जान लेने का उपाय ढूंढ़ती थीं. दो दिन बाद उसके और जान-पहचान वाले वहां आ गये. सबने हम सबके साथ…’ बबुनी की भोली जुबान में इतनी हिम्मत कहां कि अपने, अजोरिया तथा डोली पर वज्र बनकर टूटने वाले ख़ौफ का बयान कर सके. मगर आज अपने बाबा के कंधे पर माथा टेककर हिक्क भर रो लेना चाहती थी. उसकी जुबान ने फिर दहकना शुरू किया, ‘‘हफ्ते भर बाद हम चारों को रंडी खाना पहुंचा दिया. वहां भी खुद को मारने की हमारी सारी कोशिशें नाकाम रहीं बाबा. अपने अपमान और पीड़ा को दबाए हुए हम लाश की तरह नोंची जाती थीं. धन्धे से मना करने पर मालकिन जंजीर से बांधकर लात-घूंसा बरसाते हुए अधमरा कर देती थी. हम चारों के किस-किस अंग पर छड़ के, डंडे और जंजीर के काले-नीले निशान नहीं हैं? मार से मेरी बोटी-बोटी काली हो चुकी है बाबा! न जाने किस दुर्भाग्य ने हमें मरने नहीं दिया. आदमी में इतना राक्षस? औरत की शरीर के लिए इतनी क्रूरता? आदमी के भीतर इतनी दरिंदगी? चारों ओर औरत के विरूद्ध उमड़ता-घुमड़ता ऐसा खूनी अंधकार? इसीलिए तो एक दिन डोली, अजोरिया ने कोठे की तिमंजिला छत से कूदकर जान दे दी और मैं आधी रात को वहां से किसी प्रकार भागकर अपने घर आ गयी. झुलनी का कुछ अता-पता नहीं. सुना है हरामियों ने उसे सऊदी अरबिया बेंच दिया, जहां से यदि कुछ आयेगा, तो एक दिन उसके मरने की खबर ही आएगी.’’
बबुनी के बाबा ने एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य को सुना, मनपूर्वक सुना, पीया-पचाया और जीया. वह बबुनी को हिम्मत दे या खुद को समझाए! बबुनी से नजरें मिलाए या अपने आप से? बबुनी की बातों का जवाब दे या खुद के सवालों का?
झुलनी के गांव से अपने गांव पाकुड़ा वापस न आने और कोठरी के दरवाजे पर चार दिन तक ताला लटकने के कारण जोकर के गांव में सनसनी धधक उठी. हूबहू भूत जैसा दिखने वाला हनुमान कहीं असली भूत तो नहीं बन गया? आज तक गांव-घर छोड़कर ऐसा गायब कभी नहीं रहा. न किसी से मिला, न किसी को बताया. नाते-रिश्तेदार भी इसके लिए मर चुके हैं. जीवन में भूलकर भी किसी रिश्तेदार का मेहमान नहीं बना. सब इसकी भुतहा कद-काठी का मजाक बनाते हैं. एक हफ्ता, दस दिन, पन्द्रह दिन… हनुमान मास्टर के अंतर्ध्यान होने की खबर जिला-जवार तक में फैल गयी. नौटंकी के मालिक गाड़ियां घरघराते हुए आते और निराश आंखों से मुँह लटकाए वापस जाते. बहुरूपिया मंडली के कर्ता-धर्ता अपने दलबल के साथ हनुमान की खेाज में निकले मगर हनुमान ‘मसक समान रूप कपि धरी’ को चरितार्थ कर रहा था. गाँव-गाँव, गली-गली, खेत-खलिहान, पुरवा-पट्टी सब जगह छान मार गया, मगर रिजल्ट वही ‘ढाक के तीन पात.’ गाँव वालों ने तो आशा ही छोड़ दी कि इस विलक्षण भूत के फिर कभी दर्शन हो पाएंगे.
बीसवें दिन खुद ब खुद प्रकट हुए बावन मास्टर. मगर यह क्या? पच्चीसों बौनों की बरात साथ-साथ? गाँव वालों के आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं. दर्जनों पोंटहा, नंगे बच्चे मारे खुशी के नाच-नाच कर चिड़िया बन गये थे, अपने प्रभु को पाकर. ताक् धिना धिन, धिन,धिन ता. तिरकट धिन्ना, तिरकट धिन्ना, न्, न् .. न्… न्…… ना धि धिन्ना, ना धि धिन्ना, ना धि धिन्ना, धिन् न ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ.
पाकुड़ा गाँव एक ही बावन बाबा के कारण सुर्खियों में रहता था. अब तो दो दर्जन से भी ज्यादे बौनों की फौज. एक सुबह अपनी कोठरी के सामने खड़े हनुमान को भाषण देते गाँव वालों ने सुना. छोकरी की वाणी की तरह पतला, किंतु टनकदार और निर्भीक भाषण, ‘‘मेरे भइया, बाबू लोग. आप सभी का मैं मरते दम तक कर्जदार रहूंगा. आपने मेरी पीड़ा समझी, मेरी बात मानी और माताओं, बहनों, बेटियों की इज्जत को अपनी इज्जत माना. धरती मइया की मिट्टी उठाइए कि आज के बाद हम न बहुरूपिया बनेंगे, न किसी नौटंकी-फौटंकी में जोकरई करेंगे. हम मेहनत-मजूरी करके, सड़कों पर पसीना बहाकर अपना पेट पालेंगे. अब जीवन का एक ही मकसद है, इंसान के रूप में छिपे हुए पिचासों का…’’ कहते-कहते, उस्ताद हनुमान फफककर रोने लगा. बाढ़ का रुका हुआ पानी बांध को तोड़-ताड़कर दिशा-दिशा को जलमग्न कर देना चाहता था. फटी आँखों से आज देखा गाँव वालों ने, भूत भी दूसरों के लिए पछाड़ खाकर रोते हैं. दूसरों के लिए अपनी जान देते हैं.
कवि, कथाकार और आलोचक भरत प्रसाद पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं. अब तक उनकी 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. उन्हें पांच साहित्यिक पुरस्कार मिले हैं और उनकी कविताओं का नेपाली, बांग्ला और अंग्रेजी एवं मराठी में अनुवाद हो चुका है. उनके सृजन पर केन्द्रित आलोचना पुस्तक शब्द शब्द प्रतिबद्ध प्रकाशित हुई है. पुकारता हूँ कबीर पर लघु शोध प्रकाशित हुआ है.
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Featured Image: “Więzień, the dwarf-prisoner” by Klearchos Kapoutsis is licensed under CC BY 2.0
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