अपरिचित
हम एक-एक शब्द जोड़कर बनाते हैं
छोटे-छोटे पुल
जिस पर चलकर हमें एक-दूसरे के करीब आना होता है
हमारे पास अविश्वास करने के लिए कुछ खास नहीं होता
और यकीन करने के लिए बहुत कुछ होता है
वो सब कुछ जो हम नहीं जानते हैं
हमारे यकीन को रास्ता देता है
असहज होते हैं
थोड़ा संकोच करते हैं
बात कहां से शुरू करें
हमेशा ही शुरुआत एक सी होती है
बेवजह मुस्कुरा पड़ना
ठिठक जाना या रास्ता देना
या एक-दूसरे को बस अकारण ही देखना
हम समझ जाते हैं कि कुछ बातों कुछ चीजों को देखने का
तरीका एक जैसा है हमारा
हम एक दूसरे का नाम जानते हैं
शहर, प्रोफेशन, पता
हम एक-दूसरे को जानने लगते हैं
शब्दों के पुल ढह जाते हैं
अ-परिचय का तिलिस्म तो कब का टूट जाता है
कुछ तो भूल गया
“भूलना मत!”
उसने कहा था…
“भूलना मत!” इन दो शब्दों की अनुगूँज
धीरे-धीरे मेरे जीवन में फैल गई
मेरे जीवन के सारे वर्ष इसमें समा गए
सारी रातें, सारे दिन, सारे स्वप्न
सांस, रक्त और धड़कन
अब अचानक नींद से जग जाता हूँ
चलते चलते ठिठक जाता हूँ
लगता है कुछ छूट गया
कभी लगता है कि कुछ तो भूल गया हूँ।
ये अक्तूबर एक लंबी उदास कविता है
मुझे अक्तूबर उदास करने वाला महीना लगता है। बचपन से ही मन को खाली-खाली सा कर जाता है। एक तो वजह यह है कि ज्यों ही यह दस्तक देता है, साल के जाने की तैयारी शुरू हो जाती है। उलटी गिनती होने लगती है।
इसमें सांझ जैसी परछाइयां हैं। मन भी कुछ थका-सा क्लांत रहता है। साल का लेखा-जोखा और हाथ क्या आया… यही सब घुमड़ता है। हाथ रीते ही रह जाते हैं। कि एक और साल गया… मन के भीतर कोई बोलता है।
बादल चले जाते हैं। धूप में भी वो तेजी नहीं रहती। कुछ उत्सव-त्योहार चमक-दमक लेकर आते हैं। जाने क्यों वो भी मुझे बचपन से बहुत खुशी नहीं देते। रोशनी की घूमती चकरियां और मेले, दूर से उठती लाउडस्पीकर की आवाजें। मौत के कुयें में बिना साइलेंसर तड़तड़ाती मोटरसाइकिल। आइस्क्रीम, बुढ़िया के बाल, एयरगन की निशानेबाजी और जायंट व्हील। सब कहीं न कहीं और अकेला कर देता है।
दिए रोशनी से ज्यादा परछाइयां पैदा करते हैं। दीपावली के बाद ट्रेन से गुजरते समय रात को घरों पर जलती-बुझती रंगीन झालरें बीते जमाने की खुशियों की तरह लगती हैं। दिखती हैं मगर कभी हाथ नहीं आएंगी।
हर अक्तूबर के दिनों को तुम उंगलियों पर गिनना शुरू करते हो। हर अक्तूबर उंगलियों पर गिनते दिनों के साथ ही ख़त्म हो जाता है। हर अक्तूबर वो लड़की याद आएगी, जो तुमसे कुछ कहना चाहती थी मगर कह नहीं सकी। अक्तूबर में प्रेम नहीं याद आयेगा, प्रेम हो सकता था ये याद आएगा… प्रेम की संभावना याद आएगी।
…
ये अक्तूबर किसी लंबी उदास कविता जैसा है। धरती पर गिरे फूल की तरह। छिटका हुआ, अलग-थलग। अकेला। वर्ष की स्लेट पर उदासी की एक अकेली खिंची रेखा जैसा है यह महीना। हमारे एकांत को अपने एकांत में तिरोहित करता हुआ। किसी पुराने अल्बम में हमारे उदास दिनों को चिपकाता, जो साल में कभी-कभी ही निकलता है।
एक दिन किसी पल सर्द सी हवा चलती है और हम समझ जाते हैं कि अक्तूबर भी हमसे विदा ले रहा है। सर्दियों की आहट के संग उल्टे कदम लौट रहा है। लावारिस महीना। जो न गर्मियों में शामिल हुआ, न बारिश से उसकी संगत है और न सर्दियों से दोस्ती। अगले बरस भी जब वह आएगा तो उतना ही अकेला होगा।
…शायद हम भी।
दिनेश श्रीनेत कवि-कथाकार, पत्रकार तथा सिनेमा व लोकप्रिय संस्कृति के अध्येता हैं। पहली कहानी ‘विज्ञापन वाली लड़की’ सन् 2006 रवींद्र कालिया के संपादन में निकलने वाली ‘वागर्थ’ में प्रकाशित। बाद में ‘उर्दू आजकल’ तथा पाकिस्तान के उर्दू ‘आज’ में छपी और सराही गई। 2012 में ‘उड़नखटोला’ व 2018 में बया में ‘मत्र्योश्का’ कहानी प्रकाशित, भोपाल समेत कई शहरों में कहानियों का पाठ। कविता लेखन और विभिन्न मंचों से कविता पाठ। जश्न-ए-रेख़्ता, बुंदेलखंड लिट्रेचर फेस्टिवल, दिल्ली पोएट्री फेस्टिवल में शिरकत और सिनेमा तथा साहित्य पर संवाद। पहल, हंस, स्त्रीकाल, पाखी, बया, अनहद आदि साहित्यिक सामाजिक पत्रिकाओं सिनेमा व पॉपुलर कल्चर पर लेख। वाणी प्रकाशन से 2012 में आई ‘पश्चिम और सिनेमा’ किताब महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए अनुसंशित। दिनेश टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑनलाइन संस्करण में कार्यरत हैं। वे हिंदी की डिजिटल पत्रकारिता में काम करने वाले सबसे आरंभिक पत्रकारों में से एक रहे हैं।