भरत प्रसाद ।
फिर किसी भोर को आंखें नहीं देख पाएंगी
फिर कोई सूरज हाथ जोड़ने को विवश नहीं करेगा
फिर कोई धरती स्वर्ग की तरह नहीं मिलेगी
फिर कोई मिट्टी आत्मा को मुक्ति नहीं देगी
फिर कोई अवसर इस पृथ्वी की तरह कहाँ मिलेगा?
बहुत ऋण मचलता है अपने शरीर के प्रति
सहता रहा जीवन भर सारी मनमानियां
अंग-अंग तो क्या,एक-एक रोवाँ
अनमोल उपहार जैसा था,प्रकृति का
कभी नहीं जुड़े अपने हाथों के लिए दोनों हाथ
कभी नहीं झुका मस्तक के आगे अपना माथा
कभी नहीं रोया , रोने वाली आंखों के लिए
मेरे धड़कते हुए हृदय!
तुम्हारा पुकार कुचलते रहने का अपराधी हूँ मैं!
जला दो मुझे
मरा हुआ मैं तुम्हारे किस काम का ?
मत जला देना मेरे जीवन भर की कृतज्ञता
मेरे रोम-रोम पर चढ़ा हुआ,
घूमती पृथ्वी का ऋण,
राख मत कर देना मेरी छटपटाती हुई भावुकता
अरमानों में अभी पंख भी नहीं लगे थे
मेरी अस्थियों को फूल की तरह
किसी देवता के चरणों में मत रख देना
रख देना मेरी अस्थियां
बहते हुए आंसुओं के नीचे!!
कवि, कथाकार और आलोचक भरत प्रसाद पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं. अब तक उनकी 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. उन्हें पांच साहित्यिक पुरस्कार मिले हैं और उनकी कविताओं का नेपाली, बांग्ला और अंग्रेजी एवं मराठी में अनुवाद हो चुका है. उनके सृजन पर केन्द्रित आलोचना पुस्तक शब्द शब्द प्रतिबद्ध प्रकाशित हुई है. पुकारता हूँ कबीर पर लघु शोध प्रकाशित हुआ है.
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