कहानी को यहां से देखिए में इस बार सुधांशु गुप्त सुना रहे हैं नाईजीरियाई लेखिका एकपाघा की कहानी – क्या तुम्हें खाना बनाना आता है?
ओके एकपाघा नाईजीरिया की युवा लेखिका हैं। वह दुनिया को अपनी तरह से समझना और देखना चाहती हैं, देख समझ रही हैं। वह अपने लोगों से संवाद बनाए रखने के लिए साप्ताहिक न्यूजलेटर निकालती हैं। ‘स्याही की गमक’ पुस्तक में यादवेन्द्र जी ने एकपाघा की एक कहानी का अनुवाद किया है। मूल रूप से यह कहानी अफ्रीकी लोगों के लिए निकाली जा रही पत्रिका-कालाहारी रिव्यू से ली गई है। कहानी का नाम है- क्या तुम्हें खाना बनाना आता है?
स्त्री विमर्श की इस मौज़ू कहानी पर चर्चा करने से पहले कहानी का सार देख लेते हैः
‘क्या तुम्हें खाना बनाना आता है?’ वह पूछता है।
मैं चौंककर उसकी ओर देखती हूं…देखती रह जाती हूं।
‘इसका मतलब हुआ नहीं आता है’ अनायास ही वह बोल पड़ा।
‘क्या तुम्हें आता है?’जवाब में मैं भी पूछ देती हूं।
‘पर पहले मैंने पूछा था…और यह कोई महत्वपूर्ण बात भी नहीं है कि मैं खाना बनाना जानता हूं कि नहीं,’ उसने अपना बचाव किया।
‘ओह, मैं कहती हूं….देखो, तीन नहीं तो हद से हद पांच साल लगेंगे जब तुम्हारी शादी हो जाएगी, कोई शक इसमें?’
‘तब बताओ तुम खाना बना पाओगे?’ मैं फिर से पूछती हूं।
वह मुस्कराता है…. ‘पर तुम्हारे साथ अच्छी बात यह है कि तुम दूसरी फेमिनिस्ट लड़कियों की तरह बर्ताव नहीं कर रही हो, जिन्हें खाना बनाना दुनिया का सबसे खराब काम लगता है।’
उसकी यह बात सुनकर मैं हौले से मुस्करा देती हूं।
‘तुम्हारी फेवरिट डिश क्या है?’…वह जानना चाहता है।
‘स्टार्च और बैंगा,’ मैंने जवाब दिया।
‘पर जानती हो इसे बनाते कैसे हैं?’
मैंने अपना सिर हिला दिया।
‘कैसी बात करती हो, यह तुम्हारी फेवरिट डिश है और तुम्हें उसे बनाना भी नहीं आता….मान लो यह तुम्हारे पति की भी फेवरिट डिश हुई तो?’ उसने अगला सवाल दाग दिया।
मैंने अपने कंधे उचकाकर प्रतिक्रिया दी।
‘अच्छा बताओ, याम (रतालू जैसा ज़मीन के अंदर पैदा होने वाला अफ्रीकी फल) कूट सकती हो?’ उसने अगला सवाल दागा।
‘मैंने अपने जीवन में सिर्फ तीन बार कुटे हुए याम खाये हैं,’ मैंने उसकी आंखों में आंखें डालकर रुखा सा जवाब दिया।
‘अच्छा बताओ तुम्हारा पति कुटे हुए याम का शौकीन हुआ तब क्या करोगी?’ वह सवाल पर सवाल दागे जा रहा था।
मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं और गहरी सांस ली। सोचा कहीं से हमारे बीच कोई आ क्यों नहीं जाता, जिससे मुझे उसकी सूरत दिखाई न दे। आज का दिन क्या इसी सड़ी गली बकवासबाजी के लिए है…मन ही मन मैंने कहा-अपना ज्ञान अपने पास रखो….और मुझे मेरे हाल पर छोड़ क्यों नहीं देते। आखिर हम दोनों शादी थोड़ी ही करने जा रहे हैं, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि तुम मेरे पति बनोगे।
‘मेरा पति इतना समझदार तो होगा ही कि अपनी फेवरिट डिश खाने की जगह ढूंढ़ ले,’ मैंने जवाब दिया।
‘अच्छा, तो तुम अपने पति को घर के बाहर धकेल दोगी कि जाकर अपनी पसंद की डिश खा आओ…एक बात तो पक्की हो गई कि तुम अब तक किसी रिलेशनशिप में नहीं रही हो…एक बार जब इसमें पड़ोगी तब आटे दाल का भाव मालूम हो जाएगा। तुम्हें क्या लगता है पतियों को पा लेना और अपने प्रेमपाश में बांधकर साथ-साथ रहना बच्चों का कोई खेल है?’ हार कर उसने चोट पहुंचाने वाला तीर छोड़ा।
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।
‘मैंने तुमसे कुछ पूछा है। ’
‘हां तो फिर क्या हो गया?’ खीझकर मैं बोली।
उसने मुझे घूर कर देखा तो मैंने भी उसी भाषा में जवाब दे दिया। यह कैसा इडियट है….
‘तुम तो बड़ी मुंहफट और बदतमीज हो…’
यह सब देखते सुनते हुए मुझे लगा मेरा माथा अब फट जाएगा। गुस्से से मेरी आंखें वैसे ही लाल हो रही थीं और दिल धड़कने की रफ्तार तिगुनी हो चली थी। मैं उसकी ओर से नज़रें हटाकर दूसरी ओर ताकने लगी। मुझे लगा कि इस इडियट के बेतुके सवालों के जवाब क्या देने…दुनिया में ऐसे सिरफिरे एक नहीं अनेकों हैं और मेरे जवाब से उनका दिमाग सही नहीं होने वाला, उनके साथ सवाल जवाब करके तुम खुद ही पागल बन जाओगी, वे तो सुधरने से रहे। वे अपने अपने कुओं के मेंढक हैं-उनकी अनदेखी करो, इसी में तुम्हारी भलाई है।
‘मुझे नहीं मालूम कि तुम अपने आपको ज्यादा सयाना समझती हो या नहीं पर ऐसे जवाब देकर तुम यह जरूर साबित करने पर आमादा हो कि घर पर तुम्हें ढंग से सिखाया पढ़ाया नहीं गया है, तुम्हारी ढंग की ट्रेनिंग नहीं हुई है,’ पूरे निर्णायक अंदाज में वह फिर बोल पड़ा।
मेरे हाथ थरथराने लगे, सांस जोर जोर से चलने लगी। मुझे लगा मेरी आंखों से अंगारे छिटकने ही वाले हैं…अब यदि मैं एक शब्द भी बोली तो गुस्से से थरथराती आवाज़ से वह समझेगा मैं डर रही हूं। असलियत पता चलते ही उसको लगेगा कि मैंने गुस्सा होकर सार्वजनिक रूप से उसकी इज्जत उतार दी है…जबकि वास्तविकता यह है कि उस जैसे मूढ़ इंसान का पूरा वज़ूद ही मेरी शख्सियत और समझ का सरासर अपमान है, पर यह उस बेवकूफ को कभी समझ आ भी पाएगा इसकी कोई उम्मीद नहीं। मेरे पास वैसे शब्द नहीं हैं जिससे उसकी असल मूढ़ता का चित्र खींचकर उसके मुंह पर सामने से दे मारूं। फिर मुझे लगा उसे सारी बात बगैर लाग लपेट के सामने सामने मुंह पर सुना ही देना चाहिए…लेकिन मुझ पर गुस्सा इतना हावी था कि ऐसा करती तो उपयुक्त शब्दों को वह अपनी छाया से ढंक लेता और अर्थ का अनर्थ भी हो सकता था।
सो मैंने चुपचाप अपना सामान उठाया और फौरन कमरे से बाहर निकल गई।
बस कहानी इतनी ही है। लेकिन छोटी सी यह कहानी नाइजीरिया में स्त्रियों के साथ हो रहे तमाम तरह के भेदभावों को पूरी शिद्दत से रेखांकित करती है। रेखांकित ही नहीं करती बल्कि स्त्री विमर्श को एक दिशा भी देती है। कहानी में बड़ी सहजता से यह दिखाया गया है कि पितृसत्तामक समाज ने स्त्रियों के लिए कौन से काम तय कर रखे हैं, जो उन्हें आऩे ही चाहिए। खाना बनाना उनमें से एक काम है।
कहानी बिना किसी पृष्ठभूमि के इसी वाक्य से शुरू होती है-क्या तुम्हें खाना बनाना आता है? पूरी कहानी इसी वाक्य के इर्दगिर्द बुनी गई है। कहानी में अनावश्यक विवरण तक नहीं हैं। लड़का सवाल पूछ रहा है और लड़की खीझ में उसके जवाब दे रही है। लेकिन इस संक्षिप्त बातचीत में ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि खाना बनाना स्त्रियों का ही काम माना जाता है।
इस पूरी बातचीत के विरोध में स्त्री पक्ष भी पूरी शिद्दत के साथ उभरता है। कहानी में पुरुष अपनी पितृसत्ता की अकड़ में है। स्त्री के मन में पुरुष के प्रति बहुत ज्यादा आक्रोश है। वह बहुत कुछ कहने की सोचती भी है लेकिन फिर उसे लगता है कि इस मूढ़ को कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं है। वह अपना सामान उठाती है और कमरे से बाहर निकल जाती है।
पूरी कहानी में स्त्री प्रतिरोध साफ दिखाई पड़ता है। यही इस कहानी की खूबसूरती है।