ब्रिटेन में रहने वाले कवि अजय त्रिपाठी ‘वाक़िफ’ की नज़्म ‘तमाशा चलता रहता है’…
मैं अपने आप से डरने लगा हूं
और अपने नाम से डरने लगा हूं
मेरा ये नाम मुझ पर एक विज्ञापन लगाता है
ना जाने क्यों मेरा ये आपको मज़हब बताता है
ये नाम कुछ ख़तरों को पैदा कर रहा है
ये इक रंजिश को शैदा कर रहा है
मेरे चेहरे की दाढ़ी भी कोई पैगाम देती है
वो टोपी हो या हो पगड़ी वो कुछ तो बोल देती है
मेरा ये रंग भी मुझको किसी दुनिया का बतलाता
मेरे लब खुलने से पहले है मेरा ख़ाक़ा खिंचा जाता
मेरे मिलने से पहले क़िरदार मेरा सोच लेते हैं
मैं ऐसा हूं या वैसा हूं अक़्सर सोच लेते हैं
मैं परेशां हूं
मैं परेशां हूं कि नस्ली भेद का दोषी किसे बोलूं
बनाया जिसने है सबको उसी का भेद मैं खोलूं
उसे डर था कि गर सब प्यार से रहने लगे तो फिर
उसे फिर कौन पूछेगा सहारा कौन मांगेगा
अमन का चांद उसके नाम तक को भी भुला देगा
ये साज़िश उसकी ही है
ये साज़िश उसकी ही है सब में जो कुछ फ़र्क़ रखा है
इन्हीं फ़र्क़ों ने हमको बारहा उलझा के रखा है
नस्ल की आग में जब आप और हम यूं झुलसते हैं
तभी हम दे दुहाई नाम उसका लेते रहते हैं
यहां हम मरते रहते हैं वहां वो ज़िंदा रहता है
तमाशा चलता रहता है
तमाशा चलता रहता है
अजय त्रिपाठी ‘वाक़िफ़’ ब्रिटेन के बर्मिंगम में रहते हैं. 2001 से ही वह यूके में होने वाले मुशायरों और कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेते रहे हैं और संचालन भी करते रहे हैं. कथा यूके, गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय, लेखनी, वातायन तथा यूपीसीएयूके जैसी संस्थाओं के साथ जुड़े हैं. उत्सव लिमिटेड के नाम से कम्पनी चलाते हैं जो देश-विदेश में संगीत व साहित्यिक कार्यक्रम करती है. उनकी रचनाएं कुछ पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी हैं.
मुख्य तस्वीरः Daniel Hannah from Pixabay
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