युवा लेखक प्रदीप जिलवाने कहानियां और कविताएं लिखते हैं. उनका एक उपन्यास भी प्रकाशित हो चुका है. उन्हें अनेक पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है. पेश है उनकी नई कहानी…
पहला हिस्सा: मुख़्तसर किस्सा
उन दिनों हम तीनों एक कमरे में साथ-साथ रहते थे। मैं, मनीष और असद।
हमारे कमरे की खिड़की एक गली में खुलती थी। गली के दूसरी ओर, हमारी खिड़की के ठीक सामने, एक रंगीन खिड़की खुलती थी। उस खिड़की से हम तीनों को प्यार हो गया था। हो सकता है आप कभी उधर से गुजरे हों और आपने भी वह खुरचे हुए-से फीके, नीले रंग वाली खिड़की देखी हो जिसे मैं यहाँ रंगीन खिड़की कह रहा हूँ, तो आप इसे मेरी कल्प कथा न समझे। यह बिल्कुल सच है कि मुझे कभी वह खिड़की खुरचे हुए-से फीके नीले रंग वाली नजर नहीं आयी। मुझे तो हमेशा उस खिड़की पर बदलते हुए रंगों वाली एक पूरी दुनिया नजर आती थी। रंगीन दुनिया। मैं उन दिनों उन रंगों की दुनिया में अक्सर खो जाया करता था। सोते जागते, मेरे खयालों में वह खिड़की अपने किसी रंग में मौजूद रहती थी। चूँकि उस खिड़की में मुझे हमेशा बदलते हुए रंग और कभी-कभी तो एक-दूसरे में किसी तरतीब से मिले हुए खूबसूरत रंग नजर आते थे, मैं उसे अपनी रंगीन खिड़की मानता था, जिसके पार मुझे अपने पसंद के रंग की दुनिया मालूम होती थी।
हम तीनों ही उस रंगीन खिड़की के खुलने और खुली हो, तो उस पर अपने रंग के अवतरित होने का इंतजार करते थे। मजेदार यह था कि हम तीनों ही एक दूसरे से इस बात को छिपाते थे या यूँ कहूँ कि छुपाने की कोशिश करते थे कि हमें उस रंगीन खिड़की से प्यार हो गया था। इससे भी ज्यादा मजेदार यह कि हम तीनों की कोशिशें, हम तीनों ही ताड़ लेते थे मगर कभी एक दूसरे से इस बारे में जिक्र नहीं करते थे। बावजूद यह जानने के कि हम तीनों ही उस रंगीन खिड़की से प्यार करने लगे थे, हम एक दूसरे से कोई ईर्ष्या या बैर भाव नहीं रखते थे। रंगीन खिड़की से हुए अपने प्रेम को लेकर उन दिनों या बाद में भी कभी हमारे बीच कोई बहस या झगड़ा नहीं हुआ। इस बात को लेकर भी नहीं कि आज सुबह या आज शाम खिड़की के पास वाली टेबल पर बैठकर कौन पढ़ाई करेगा? सहूलियत के लिए आप इसे एक स्वस्थ प्रतियोगिता कह सकते हैं।
तो वह एक रंगीन खिड़की थी जिससे हमें प्यार हो गया था। उस रंगीन खिड़की ने भी धीरे-धीरे यह भाप लिया कि हम तीनों ही उसे चाहने लगे थे। सिर्फ उस रंगीन खिड़की ने ही नहीं, उस खिड़की के दरो-दीवार ने भी जल्द ही इस बात को भाँप लिया था बावजूद इसके कि हम तीनों ही कभी कोई गंभीर या आपत्तिजनक कार्य जैसे खिड़की की ओर ‘फ्लाइंग किस’ उछालना, कोई टीका-टिप्पणी करना या फिल्म पड़ोसन का मशहूर गीत ‘मेरे सामने वाली खिड़की में….’ गुनगुनाना वगैरह जैसी कोई हरकत नहीं करते थे, लेकिन हममें से किसी न किसी का नजर बचाकर कनखियों से उस रंगीन खिड़की को देखना और हमारे कमरे की खिड़की का प्रायः खुला ही रहना, और तो और, हमारे कमरे की खिड़की से सटी टेबल पर किसी न किसी का अक्सर कुछ न कुछ पढ़ते हुए रहना, जैसे कुछेक ‘क्लू’ ऐसे थे जिसके कारण उस रंगीन खिड़की ने और उस खिड़की से लगे दरो-दीवार ने यह भाप लिया था कि हम तीनों ही उस रंगीन खिड़की के सिर्फ खुरचे हुए-से फीके नीले रंग को नहीं देखते थे।
एक और बात यह, कि उस रंगीन खिड़की का नाम हम तीनों ही नहीं जानते थे और न हममें से किसी ने कभी कोई कोशिश की, उस खिड़की का नाम जानने की। हम तीनों में से किसी के पास इतनी हिम्मत नहीं थी कि आसपास में किसी से पूछ ले कि उस खिड़की का नाम क्या है? पूछते तो हमारी हिम्मत, हमारी हिमाकत ठहरायी जा सकती थी और उस हिमाकत के बदले न सिर्फ हम उस रंगीन खिड़की से महरूम हो सकते थे बल्कि अपनी खिड़की यानी अपने कमरे से भी हाथ धो सकते थे। यह डर हम तीनों के लिए साझा था।
हमारी खिड़की में बैठने की और ताकने की सक्रियता और अधिक बढ़ती इससे पहले ही हमने नोटिस किया था कि वह रंगीन खिड़की कम खुलने लगी थी। बाद में स्थिति में थोड़ा-सा परिवर्तन यह हुआ कि वह रंगीन खिड़की अधूरी खुलने लगी। कुछ इस तरह कि एक जरूरी ओट हो जाये और खिड़की से, जिसके लिएवह दीवार में बनायी गयी थी, उजाला भी आता रहे। खिड़की के इस तरह ओट लेकर अधूरे खुलने से भले ही उजाला आता हो मगर हमारी भेदिया नजरों ने उस रंगीन खिड़की के खुरचे हुए-से फीके नीले रंग को कुछ ही दिनों में थोड़ा और खुरच दिया था। ओट हो जाने के बावजूद हम अक्सर वहाँ अपने रंग के होने का अनुमान लगा लेते थे और स्वयं से दावा करते थे कि शर्तिया इस वक्त वहाँ वही रंग ठहरा हुआ होगा। बाद में थोड़ा परिवर्तन और हुआ। खिड़की तो पूरी खुलने लगी मगर उस पर फूलदार प्रिंट के पर्दे टँग गये। यह और बात है कि हमारी भेदिया नजरें उन पर्दों के पार भी अपने रंग के वहाँ ठहरे होने का अनुमान लगा लेती थी।
बहरहाल ये आज से लगभग सात बरस पुरानी बात है। यहाँ आप यह जरूर सोच सकते हैं या पूछ सकते हैं कि तब फिर उस रंगीन खिड़की के बारे में मैं आपको आज क्यों बता रहा हूँ? इतने बरस बाद उस खिड़की की याद अचानक मुझे आज ही क्यों कर हो आयी ? जबकि वह रंगीन खिड़की न मेरे हिस्से में आयी, न मेरा कोई और रूम पार्टनर उसे उखाड़कर यानी भगाकर अपने साथ ले जाने में सफल हुआ। न वह रंगीन खिड़की खुद उखड़कर यानी भागकर हममें से किसी के साथ चली आयी।
दरअसल आज जब अखबार में असद की गिरफ्तारी की खबर पढ़ी तो अचानक उसके साथ गुजारे हुए बीते दिनों की स्मृतियाँ ताजा हो गयीं। मैं तो भौंचक ही रह गया जब अखबार में पढ़ा कि ‘‘इंदौर में तीन माह पहले हुए एक नामी हिन्दूवादी नेता की हत्या के जुर्म में संदेह के आधार पर एटीएस टीम द्वारा असद बेग मिर्जा नाम के युवक को गिरफ्तार किया गया है। गिरफ्तार युवक पेशे से इंजीनियर है।’’
दूसरा हिस्सा: जात आदमजात
असद का ख्याल आते ही मुझे उस रंगीन खिड़की का खयाल हो आया। क्योंकर न खयाल आता, आखिर हम तीनों की साझा स्मृतियाँ है उस खिड़की के साथ। हम तीनों यानी मैं, असद और मनीष। हम तीनों उन दिनों इंदौर में एक ही रूम में साथ-साथ रहते थे। हम तीनों ही प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट की तैयारी के लिए इंदौर में ट्यूशन ले रहे थे। हम तीनों अलग-अलग शहरों के रहने वाले थे। अलग-अलग शहर क्या, दरअसल अलग-अलग राज्य के रहने वाले थे। असद तो इंदौर से सटे एक कस्बे का ही रहने वाला था। मैं छत्तीसगढ़ के दुर्ग से और मनीष महाराष्ट्र के नंदूरबार से यहाँ प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट (पीईटी) की तैयारी के लिए आये थे। दरअसल प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट की तैयारी के लिए इंदौर में कईं मशहूर इंस्टीट्यूटस् हैं। प्रतिवर्ष यहाँ के इंस्टीट्यूटस् में पढ़ने वाले बच्चे इस परीक्षा की प्रावीण्य सूची में स्थान पाते हैं। हमारे गृह जिलों में इतने अच्छे इंस्टीट्यूटस् का अभाव था और आज भी है। बहरहाल हम तीनों भी इस परीक्षा की तैयारी के लिए इस शहर में आकर पढ़ रहे थे और मँहगाई के जमाने में किसी संयोग से नहीं, कमरे के भाड़े में सहूलियत के कारण साथ-साथ रह रहे थे।
हम तीनों तकरीबन दो साल तक साथ-साथ रहे और जब जिंदगी ने हमें उठाकर अलग-अलग नौकरी पेशों में पटक दिया तब से आज तक हम एक दूसरे से नहीं मिल पाये हैं। इसलिए मेरी स्मृति में आज भी असद का वही सात साल पुराना चेहरा टँगा है। असद का पूरा नाम असद बेग मिर्जा था। मुझसे उम्र में साल छः महीने छोटा या बड़ा होगा। लगभग सत्रह की वय के असद का चेहरा काफी गोल और रंग साफ था। गाल भरे हुए लेकिन ज्यादा पास से देखने पर उनमें कुछ खुरदुरापन भी था। आँखें हमेशा गंभीर, जैसे हमेशा कुछ सोचती हुई, लेकिन मिजाज ऐसा कि अगर आप एक बार मिलें तो फिर मिलने का दिल चाहे।
मनीष कुछ फितरती था। हालाँकि उन दो सालों में जब तक वह हमारे साथ रहा उसने किसी फितरत को अंजाम नहीं दिया था लेकिन उसकी बातों और उसके व्यवहार से ये जाना जा सकता था। और मैं अपने बारे में ज्यादा क्या कहूँ ? हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि कुछ-कुछ झेंपूँ था मैं। आज भी हूँ।
हम तीनों बारी-बारी से खाना बनाते थे। अगर सुबह मनीष तो शाम को फिर असद या मैं। खाने का सामान भी हम साझा ही खरीदते थे। ज्यादातर हम सुबह पराठे बना लेते और किसी सब्जी या अचार के साथ खा लेते थे। शाम को अमूमन खिचड़ी ही बनती थी। अगर आपका कोई ऐसा अनुभव रहा हो तो आप आसानी से इस बात से सहमत हो सकते हैं कि खिचड़ी बनाना सुविधाजनक ही नहीं कम खर्चीला भी होता है।
हमारे कमरे के सामने खुलने वाली उस रंगीन खिड़की को हम तीनों ही अक्सर एक दूसरे से नजरें चुराकर नजर भर देख लेते थे। और कोई किसी को ऐसा करते देख ले तो वह इस बात को दूसरे पर जाहिर नहीं करता था। यह एक किस्म का हमारे बीच अघोषित समझौता था, जिसकी जद में हम तीनों ही आते थे। इसी बात का एक दूसरा पक्ष यानी हमारा साझा दुःख था कि हम तीनों ही नहीं जानते थे कि उस रंगीन खिड़की को भी हमसे प्यार या हममें से किसी से प्यार है कि नहीं ? हमारे दुःख का रंग एक था। अँधेरे की तरह गाढ़ा और एकदम काला। जिस तरह अपने प्रेम को हमने एक-दूसरे पर नहीं प्रकट किया था, अपने दुःख को भी कभी एक दूसरे पर उजागर नहीं किया।
उन दिनों हम तीनों अक्सर रात में सूनी सड़कों पर देर तक और कुछ दूर तक टहलने निकल जाते थे। हमारे बीच असद की मौजूदगी हमें ढेर सारे किस्सों से भर देती थी। असद के पास गप्प की ढेर पोटलियाँ थी। वह इन्हें न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठी करता था और हमें सुनाया करता था। हम भी बड़े चाव से उसकी बातों का आनंद लिया करते थे।
असद के पास सिर्फ गप्प ही नहीं होती थी, देश दुनिया की खबरें भी होती थीं। खबर हमारे पास भी हो सकती थी मगर खबर सुनाने का जो अन्दाजे-बयां उसे हासिल था, वह हम दोनों के लिए आज भी किसी अचरज से कम नहीं था। वह खबर को नमक मिर्च लगाकर जब सुनाता था तो मैं अक्सर सोचता था कि खबर सुनाना भी एक कला होती है।
देश-दुनिया की खबरों के अलावा असद को हमारे हिन्दू धर्म-ग्रंथों में वर्णित पौराणिक चरित्रों के भी कईं रोचक किस्से और कहानियाँ मालूम थे। हो सकता है आपको मेरी बात पर यकीन न आ रहा हो लेकिन दिक्कत यह है कि आप असद से कभी मिले नहीं हैं। नाम से असद मुसलमान था लेकिन हमने कभी उसे किसी मस्जिद में जाते या कभी नमाज पढ़ते नहीं देखा था। नाम को छोड़कर ऐसा कोई वाकिया भी याद नहीं आता जिससे यह साबित हो सके कि असद मुसलमान था। उन दिनों रमजान में भी उसने कोई रोजा नहीं रखा था। जब ईद की छुट्टी आयी तब हमें पता लगा था कि जो महीना गुजरा वह रमजान था। अगर मैं अपनी बात भी कहूँ तो मैं भी धर्म को लेकर कोई ज्यादा संवेदनशील नहीं था। नास्तिक नहीं था तो आस्तिक होने जैसा भी कुछ नहीं था। मैं और मनीष धर्मनिरपेक्ष जरूर थे लेकिन असद की तरह धर्म को पूरी तरह भूलाये नहीं बैठे थे। हम तो कभी-कभार घूमते-घामते, इच्छा होने पर रास्ते में पड़ने वाले किसी मंदिर में भी चले जाते थे। लेकिन धर्म की बात हम तीनों के बीच कभी आयी नहीं। धर्म को लेकर उस नाजुक उम्र में भी हम तीनों ने कभी थोड़ी या बहुत गंभीरता से सोचा ही नहीं था। असद की उपस्थिति को लेकर भी हमारे मन में किसी तरह का असमंजस कभी नहीं रहा। छः दिसम्बर के दिन भी नहीं, जब शहर के कुछ हिस्से काला दिवस मानकर सुनसान हो जाते थे और शहर के बहुलांश में विजयोत्सव होता था।
असद हम दोनों के साथ कुछ इस तरह रहता था कि उन दिनों कभी हमारे मन में यह विचार ही नहीं आया था कि वह मुसलमान है। मैं इस बात को इस तरह भी कह सकता हूँ कि देखने वालों के लिए हम तीनों ही हिन्दू भी हो सकते थे या तीनों ही मुसलमान भी हो सकते थे।
हम जब देर रात को टहलते टहलते किसी मंदिर के पास से गुजरते और हमारा मन मंदिर में जाकर दर्शन करने का होता तो असद भी हमारे साथ मंदिर में आ जाता था। वह भी उतनी ही श्रद्धा से सिर नवाता था जितनी श्रद्धा से हम। ऐसा नहीं था कि वह मंदिर के बाहर ओटले पर बैठकर हमारे बाहर आने की प्रतीक्षा करता।
असद के साथ हमारी ऐसी और भी स्मृतियाँ हैं। गणपति उत्सव में झाँकियाँ देखने भी हम साथ-साथ जाते थे। वहाँ हम खूब हँसी-मजाक करते थे। गणेश विसर्जन के उत्सव में जब लोग ढोल नगाड़ों पर थिरक रहे होते थे तो असद भी उस नाच गाने में शामिल हो जाता था। यहाँ तक कि हमें भी पकड़-पकड़ कर नचाने की कोशिश करता था। उन दिनों एक दफा रावण दहन देखने जब हम साथ गये थे तो मैदान के मुख्य द्वार पर कुछ लोग आने वाले लोगों को तिलक लगा रहे थे। हमारे साथ असद ने भी अपने माथे पर खुशी-खुशी गुलाल का तिलक लगवाया था। मुझे उस समय कोई हैरानी नहीं हुई थी कि असद का धर्म अलग है। ऐसा कोई खयाल भी तब मन में नहीं आया था। शायद मनीष के मन में आया हो मगर उसने भी इस बारे में असद से नहीं पूछा और न ही मुझसे कोई बात की थी या शायद मनीष के मन में यह भय रहा हो कि किसी को पता चल गया कि असद मुसलमान है तो कोई हंगामा खड़ा हो सकता है। बहरहाल असद ने तब खुशी खुशी तिलक लगवाया था और हमने उस दिन खूब मजे किये थे। तीन-तीन चार-चार बरफ गोले खाये थे।
हम तीनों में उस रंगीन खिड़की के होने के सुख, उसके अधूरे खुलने के दुःख, उस खिड़की का नाम जानने की कोशिश में अपनी खिड़की के खो देने का डर, हमारा कमरा और सुबह-शाम के खाने के सिवा एक और बात साझा थी, वह थी हमारी प्रार्थनायें। हम तीनों अक्सर सुनी और अँधेरी सड़कों पर टहलते थे तो आकाश में बराबर एक निगाह रखते थे कि शायद कोई टूटा हुआ तारा हमें नजर आ जाये। कोई टूटा हुआ तारा दिखने पर हम एक दूसरे को बताते और तत्काल अपनी जगह पर रुककर आँखें बंद कर लेते थे, और मन ही मन प्रार्थनायें बुदबुदाया करते थे। हमारी प्रार्थनायें हमारे अपने लिए नहीं होती थी। या तो हम एक दूसरे के लिए प्रार्थनायें करते थे या देश दुनिया की सलामती के लिए। दरअसल पहली बार जब हमने टहलते हुए टूटा हुआ तारा देखा था और प्रार्थना करने की बात हुई थी, तब ही हमने तय कर लिया था कि जब भी हम रात में टहलने निकलेंगे और कोई टूटा हुआ तारा देखेंगे, हम अपने देश, अपनी दुनिया और दूसरों के लिए अमन-चैन और एक-दूसरे के लिए सफलताओं की प्रार्थनायें किया करेंगे। इस तरह हमारी प्रार्थनायें भी साझा थी।
तीसरा हिस्सा: अंत से पहले
यह हमारे दूसरे वर्ष के अंतिम तीनेक महीने पहले की घटना होगी। अपने कमरे की खिड़की से सटी टेबल पर उस दिन असद किताब खोलकर बैठा पढ़ रहा था या शायद पढ़ने का अभिनय कर रहा था। मैंने देखा था, वह रंगीन खिड़की जो अधमुँदी पलकों की तरह अधूरी खुलती थी, किसी धक्के से पूरी खुल गयी थी। उस पर टँगे फूलों वाले पर्दे एक झटके से हट गये थे। मैंने कनखियों से देखा। असद उस रंगीन खिड़की के पार अपनी पसंद का रंग देख रहा था। असद के चेहरे पर उस समय मौजूद वह रंग आज भी मैं साफ-साफ देख सकता हूँ। सच कहूँ तो उस दिन पहली बार मुझे असद से ईर्ष्या हुई थी। अपनी रंगीन खिड़की के खो जाने का डर मुझे पहली बार लगा था। लेकिन जैसा कि हमारे बीच अघोषित समझौता था, न मैंने असद को टोका, न असद ने इस बात को हम पर जाहिर किया कि वह खिड़की उसके लिए कुछ ज्यादा खुलने लगी थी।
बाद के दिनों में अक्सर मैंने और मनीष ने भी नोटिस किया था कि हमारे कमरे की खिड़की से सटी टेबल पर बैठकर जब असद पढ़ाई करता था तो वह रंगीन खिड़की कुछ ज्यादा खुलती थी।
बहरहाल असद के कारण उस रंगीन खिड़की के थोड़े ज्यादा खुलने के सिवा और कोई जानकारी मेरे पास है भी नहीं। मसलन मैं नहीं जानता कि मेरी और मनीष की गैर मौजूदगी में कभी असद ने कोई इजहारे मुहब्बत का पैगाम उस रंगीन खिड़की की ओर उछाला था या नहीं। या कि हमारी अनुपस्थिति में असद और उस रंगीन खिड़की में कोई बात हुई थी या नहीं। लेकिन जितनी जानकारी मेरे पास है उसके अनुसार बात सिर्फ उस रंगीन खिड़की के थोड़ा ज्यादा खुलने तक ही सीमित रही। इस बीच हमारा बचा हुआ साल भी खत्म हो गया था।
अपना कोर्स खत्म होने के बाद अपना कमरा और वह रंगीन खिड़की छोड़कर हम तीनों ही अपने-अपने शहर लौट गये थे। कुछ दिनों बाद हमारी मुख्य परीक्षा थी और हम तीनों ने ही अपने अपने शहर के पास के परीक्षा केन्द्र चुने थे। चूँकि असद इंदौर से सटे कस्बे में ही रहता था, इसलिए असद ने अपना परीक्षा केन्द्र इंदौर भरा था। कोर्स खत्म होने के बाद हम जब लौटें तो फिर कभी हम तीनों की मुलाकात नहीं हो सकी।
हाँ, एक बात जरूर है कि हमें एक दूसरे का रोल नंबर मालूम था। जब प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट का रिजल्ट आया था तो मैंने असद और मनीष का रोल नम्बर भी देखा था, असद को अच्छी रेंक मिली थी। मेरा ख्याल है उसे कोई अच्छा इंजीनियरिंग कॉलेज भी मिल गया होगा। मनीष की रेंक बहुत नीचे थी, फिर भी उम्मीद करता हूँ उसे भी किसी अच्छे इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट में दाखिला मिल गया होगा।
अंतिम हिस्सा: रात के साढ़े दस बजे
आज लगभग सात साल बाद असद का नाम अखबार में पढ़ा तो उस रंगीन खिड़की की फिर याद हो आयी और वे प्रार्थनायें भी जो अक्सर अँधेरी रातों में सूनी सड़कों पर टहलते हुए हम एक दूसरे के लिए और देश-दुनिया की सलामती के लिए किया करते थे।
असद की बातें और उसके साथ गुजरा वह समय रह रह कर याद आ रहा है। रात गहरा रही है और नींद आँखों से दूर जा रही है। नींद नहीं आयी तो उठकर बालकनी में चला आया और आकाश में टिमटिमाते हुए तारों को देखने लगा। एक तारे में मुझे असद का चेहरा दिखायी दिया। एकदम साफ। वही लगभग सत्रय की वय का गोल चेहरा। रंग साफ। गाल भरे हुए लेकिन ज्यादा पास से देखने पर उनमें कुछ खुरदुरापन। आँखें हमेशा गंभीर जैसे हमेशा कुछ सोचती हुई लेकिन मिजाज ऐसा कि अगर कोई एक बार मिलें तो फिर मिलने का दिल चाहे।
मैं नहीं जानता सात साल में असद का चेहरा कितना बदला होगा। मेरे लिए तो आज भी असद का चेहरा वही है, जो सात साल पहले था। असद भी वही जो हमारे साथ कभी किसी मंदिर में चला आता था तो कभी गणेश विसर्जन की झाँकियों में नाचने-झूमने लगता था और हमें भी नचाता था। दशहरे मैदान पर खुशी-खुशी तिलक लगवाता था।
मैं असद के साथ गुजरे हुए उन दिनों की स्मृतियों के बारे में सोच ही रहा था कि आकाश में एक टूटा हुआ तारा मुझे दिखायी दिया। मैंने मन ही मन एक प्रार्थना बुदबुदायी कि काश असद बेग मिर्जा नाम का वह शख्स जो पकड़ा गया है, वह कोई और असद बेग मिर्जा हो, हमारा असद न हो। हमारा रूम पार्टनर असद न हो। वरना यह सिर्फ एक मुसलमान की गिरफ्तारी की खबर भर नहीं होगी, बल्कि एक आदमजात की हत्या की सूचना भी होगी। आमीन!!
प्रदीप जिलवाने 14 जून 1978 को मध्य प्रदेश के खरगोन में जन्मे. कहानी और कविता दोनों विधाओं पर बराबर हक रखने वाले प्रदीप को भारतीय ज्ञानपीठ से नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है. उनका कविता संग्रह ‘जहां भी हो जरा सी संभावना’ खूब चर्चित रहा था. फिलहाल म.प्र. ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण में कार्यरत.
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मुख्य तस्वीरः Photo by Daria Shevtsova from Pexels