सुधांशु गुप्त आज देख रहे हैं उर्दू कथाकार जीलानी बानो की कहानी ‘दूरबीन’ को…
जीलानी बानो उर्दू की ऐसी कथाकार हैं, जिन्होंने पर्दे में रहते हुए भी अपने ज़माने की अदबी चहल-पहल की आहटें सुनकर लिखना शुरू किया। जीलानी बानो ने अपनो समय के बदलते जीवन मूल्यों और समाज में औरत की हैसियत को अपनी कहानियों और उपन्यास का विषय बनाया। उनकी कहानियां बेहद सहज और सरल जान पड़ती हैं। लेकिन इतनी ही सहजता और सरलता से वह जीवन के सच को देख पाती हैं, यही बात उन्हें महान कहानीकार बनाता है। उनकी एक छोटी सी कहानी है ‘दूरबीन’।
कहानी का सार इस तरह हैः
एक दिन बड़े भैया के दोस्त नारायण, वेंकटाचारी और उसकी पत्नी सलूजा के घर आते हैं। नारायण शराब के व्यापारी हैं। विवाह के एक साल बाद ही उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर चली गई थी। इसके बाद उन्होंने दूसरा विवाह करने की नहीं सोची। वह दोस्तों और उनकी पत्नियों के साथ ही मन बहलाव कर लेते हैं। नारायण, वेंकटाचारी और सलूजा के घर जब वह पहली बार आए तो उनके हाथ में एक दूरबीन थी। उन्होंने वेंकटाचारी को दूरबीन से एक खेल दिखाया। दूरबीन में सलूजा नारायण के इतनी करीब दिखाई दे रही है कि वह चाहे तो हाथ बढ़ाकर उसे छू सकता है। वेंकटाचारी दूरबीन में देखने के बजाय अपनी बीवी सलूजा को देखने लगते हैं, जो नारायण के बहुत करीब चली गई थी, और उससे बहुत दूर।
नारायण कुछ देर वेंकटाचारी को यही खेल दिखाता रहता है। सलूजा को भी इस खेल में मज़ा आऩे लगता है। नारायण अक्सर वेंकटाचारी के घर आने लगा। सलूजा से भी उसकी दोस्ती हो गई। वह कहानी सुनाकर, टॉफियां और बिस्कुट खिलाकर, मजेदार खाने की तरकीबें बताकर, गीत सुनाकर, सितार बजाकर, फिल्म स्टारों की नकलें उतारकर सलूजा को प्रभावित करता रहता। एक रोज़ वेंकटाचारी अपनी कहानी नारायण को सुनाता है। वह बताता है, मेरे और सलूजा के बीच पांच छतों का फासला था और मैं सारी सारी रात छत पर टहल-टहलकर सोचता था कि यह फासला कैसे तय होगा?
सलूजा का बाप बीड़ी के पत्तों का ब्यौपारी था। इसलिए वह अपनी बेटी के लिए भी एक लखपति दूल्हा ढूंढ रहा था। इधर मेरे पास पांच सौ रुपए की लेक्चररशिप थी और एम.ए. की एक मामूली सी डिग्री, मगर सलूजा कहती थी कि मुझे सोने का मंगलसूत्र और कतान की साड़ी नहीं चाहिए…और फिर सलूजा की पूजा रंग लाई….वह भगवान, तो पत्थर की मूरत बने चंदन के सिंहासन पर चुपचाप बैठे नज़र आते हैं, जाने कैसे अपने सिंहासन से नीचे उतरे और हम दोनों के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया…सलूजा के गले में झूठे मोतियों का मंगलसूत्र देखकर मुझे ख्याल आता, वह कितनी ऊंची है, कितनी दिलवाली है। नारायण इस कहानी को सुनकर ख़ूब हंसता है। वह कहता है, तुम भोले राजा है वेंकटाचारी…उसे अब हर चीज़ चाहिए, मगर तुम्हें पाने के बाद…।
‘नहीं नारायण भाई, वह ऐसी नहीं है।’
‘हम भी यही समझते थे यार, बस इसी धोखे में रह गए।’
नारायण का वेंकटाचारी के घर आनाजाना बढ़ता रहा। वह कई बार फिल्म दिखाने और उसके बाद खाना खिलाने का भी प्रस्ताव रखता। दोनों खुश होते।
फिर अचानक नारायण गायब हो गया। चार वर्ष बाद दोबारा वेंकटाचारी से बाजार में मिल गया। उसने कहा, हैलो वेंकटाचारी…कैसे हो? बहुत दुबले हो गए हो…हमें भूल गए क्या…मैं तो बिजनेस के सिलसिले में चार साल यूरोप रहा…और सुनाओ तुम्हारी मिसेज कैसी हैं…क्या नाम था उसका संता…कांता…।
वेंकटाचारी ने आहिस्ता से कहा, सलूजा था…मगर अब वह मेरी पत्नी नहीं है…
नारायण ने चौंकते हुए कहा, अरे क्यों…यह कब हुआ…।
वेंकटचारी ने उसे नफ़रत से देखते हुए कहा, उन्हीं दिनों जब तुम उस पर आशिक हुए थे।
‘मैं…..मैं तो अब किसी औरत पर आशिक नहीं हो सकता। मैं तो सिर्फ उन रूहों के अंदर झांकता हूं, जो झूठ की नकाब ओढ़े रहती हैं, मैंने तो तुम्हें कह दिया था कि मैं तुम्हें एक तमाशा दिखा रहा हूं…’ यह कहकर नारायण ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और आगे बढ़ गया।
पढ़िएः सचित्र आत्मकथा का एक नया प्रयोगः पर्सेपोलिस
बस कहानी इतनी ही है लेकिन पूर्ण है।
इसके आगे कहानी में कुछ नहीं हो सकता। आप चाहें भी तो कहानी में कुछ जोड़ घटा नहीं सकते। सलूजा किसके साथ भागी यह बात भी बेमानी है। बस इतना सच है कि वह वेंकटाचारी के साथ नहीं है। साथ ही यह भी सच है कि नारायण के साथ भी उसका कोई रिश्ता नहीं था। कहानी में दूरबीन के माध्यम से जीलानी बानो ने आपसी रिश्तों की पड़ताल की है। वेंकटाचारी और सलूजा का जीवन सहजता से बीत रहा है, (बाहर से ऐसा ही लगता है)लेकिन नारायण के आने से इनके जीवन में उथल पुथल मच जाती है।
नारायण की पत्नी विवाह के एक साल बाद उसे छोड़कर जा चुकी है। इसके बाद उसने दोबारा शादी नहीं की। कहानी में इस तरह के संकेत मिलते हैं कि शायद सलूजा नारायण के प्रति आसक्त हो रही है। या नारायण सलूजा को वेंकटाचारी से दूर करने की कोशिश कर रहा है। वेंकटाचारी भी अंत में साफ शब्दों में नारायण के सलूजा पर आशिक हो जाने की बात कहता है। लेकिन सच यह नहीं है। नारायण का कहना है कि अब वह किसी औरत पर आशिक नहीं हो सकता। कहानी में जीलानी बानो ने दूरबीन के माध्यम से झूठ का नकाब ओढ़े स्त्री के चेहरे को बेपर्दा किया है।
नारायण भी कहता है, मैं सिर्फ उन रूहों के अंदर झांकता हूं, जो झूठ की नकाब ओढ़े रहती हैं। यह कभी ना भूलने वाली कहानी है, जो बड़ी सहजता से उस सच को दिखाती है जिसें हम सामान्य स्थिति में नहीं देख पाते। दिलचस्प बात है कहानी में किसी तरह की नाटकीयता नहीं है। सहज रूप से कहानी शुरू होती है और सहजता से समाप्त हो जाती है। कहानी में ना कहीं भाषा की कलात्मकता है और ना राजनीति या इतिहास का मसाला। कहानी की यही सहजता कहानी को बड़ा बनाती है।