सुधांशु गुप्त आज देख रहे हैं टेंडई मचिनगेडजा की कहानी ‘मेरे केश पुरखों से बात करते हैं’…
जिंबाब्वे, हरारे, में1982 में पैदा हुई टेंडई मचिनगेडजा युवा पीढ़ी की प्रमुख लेखिका हैं। टेंडई की अनेक कहानियां अफ्रीका की साहित्यिक पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। लेकिन टेंडई के लिए कहानियां लिखना न तो मनोरंजन है और न ही संख्या में इजाफ़ा करना। बल्कि वे अपनी कहानियों अपने समाज का इतिहास बताती हैं। वे सदियों से चले आ रहे पारम्परिक विश्वासों पर चोट करती हैं, उनके खिलाफ़ खड़ी होती हैं। उनकी एक छोटी सी कहानी है ‘मेरे केश पुरखों से बात करते हैं’। इस कहानी का अनुवाद किया है यादवेन्द्र जी ने। पहले कहानी का सारः
कहानी लेखिका ने ही नैरेट की हैः
सब लोग कहते हैं मुझे शिजोफ्रेनिया है, मतिभ्रम है, पागलपन के दौरे पड़ते हैं जो सच्चाई से दूर कल्पनालोक में ले जाते हैं।
‘शिजो कौन? ’
हमारी संस्कृति में शिजोफ्रेनिया जैसी कोई चीज़ नहीं होती…आप या तो अभिशापित होते हैं या अभिमंत्रित(आशीर्वाद प्राप्त) होते हैं। कोई न कोई आत्मा आपको अपने वश में किए रहती है-दुष्ट या पवित्र।
वह मुझे ऐसे घूर रहा है जैसे मैं सड़क का कोई आवारा कुत्ता हूं, विक्षिप्त जिसके मुंह से झाग बाहर आ रहा हो। उसने फैसला सुना दिया है कि मैं पगला गई हूं-पूरी तरह से विक्षिप्त। इस बूढ़े गोरे इंसान को लोग-बाग विशेषज्ञ (एक्सपर्ट) बताते हैं…वह फौरन लोगों को मेरे केश काट देने का उपाय बताता है जिससे मैं देखने में थोड़ी सहज सामान्य लगूं-सुन्दर नहीं तो कम से कम ठीक-ठाक लगूं। वह समझ ही नहीं सकता- समझेगा भी कैसे कि मेरे केश सिर पर उगी हुई कोई फालतू चीज़ नहीं है, वे मेरे पुरखों से बतियाते बात करते हैं। मेरे केशों की एक एक लट में दैवी संदेश पिरोये हुए है-अनगिनत आवाज़ें उमड़ती घुमड़ती रहती हैं मेरे माथे में।
उसके माथे पर थोड़े से सुनहरे भूरे केश बचे हैं और वे इतने सीधे लंबवत हैं कि लगता है किसी गलती की माफी भोग रहे हों। वे भला अदृश्य महान आत्माओं की बानी क्या सुन पाएंगे। मेरे केश हमेशा चौकस और तत्पर खड़े रहते है…कहीं कोई दैवी आदेश गफ़लत में अनसुना न रह जाए। एक दो नहीं ऐसे दसियों हजार एंटेना हैं जो चौबीस घण्टे मुस्तैदी से अपना काम करते रहते हैं-क्या मज़ाल है कि ऊपर से आता हुआ एक शब्द भी इनकी पकड़ से छूट जाए।
उस बूढ़े का हुक्म सुन कर कारिंदे जैसे ही पवित्र घड़े की ओर बढ़ते हैं मैं दांत पीसते हुए उनकी ओर झपटते हुए कदम बढ़ाती हूं-‘हाथ मत लगाना, ये मेरे केश हैं…इनपर मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’
बस कहानी इतनी सी है। लेकिन यह कहानी कई स्तरों पर स्त्री के विरोध को दर्ज करती है। टेंडई आधुनिकता की दौड़ में दूसरी गोरी स्त्रियों की तरह दिखने की प्रवृत्ति पर चोट करती है। इसके साथ ही टेंडई सदियों से चले आ रहे पारम्परिक विश्वासों पर भी बल देती हैं। कहानी में कहीं भी नाटकीयता नहीं हैं, कहीं भाषा का वैभव दिखाई नहीं पड़ेगा, कहीं अकृत्रिमता नहीं है। बिल्कुल सहज और सरल शब्दों में टेंडई ने कहानी कही है। कहानी में न तो ख़ूबसूरत प्रतीक हैं, न पहाड़ और झरने। कहानी में अपनी बात कहने के लिए किस तरह टेंडई ने छोटे छोटे शब्दों का प्रयोग किया है, वह देखने और सीखने लायक है। वह लिखती हैं, इस बूढ़े गोरे इंसान को…यहां गोरे शब्द के प्रयोग ने श्वेतों द्वारा अश्वेतों पर किए जाने वाले अत्याचारों की तरफ संकेत किया है। संकेत यह भी है कि आप लोग भी हमारी तरह क्यों नहीं हो जाते। नायिका का अपने केशों के प्रति मोह सिर्फ केशों के प्रति मोह नहीं है बल्कि सदियों से चले आ रहे पारम्परिक विश्वासों के प्रति मोह है, जिसे वह किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहती। नायिका के लिए केश पुरखों से बात करने वाले साथी हैं। इसलिए वह उनकी सुरक्षा में तैनात है।
कहानी की यात्रा इसी तरह होती है। कहानी के लिए भटकाव के रास्ते नहीं होते। यदि आप अकारण कहानी को विस्तार दे रहे हैं तो आप कहानी के साथ अन्याय कर रहे हैं। टेंडई अन्याय के खिलाफ कहानी लिख रही हैं लेकिन कहानी के साथ कोई अन्याय नहीं करती है। यही वजह है कि यह कहानी कभी न भूलने वाली कहानी बन जाती है।